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परमानुयोग
तृतीय महावत को पांच भावना
सूत्र ४४७
एवं उगाहसमितिजोगेण माविओ मवह अंतरप्पा ।
इस प्रकार जिसका अन्तरात्मा अश्वग्रह समिति से भावित निम्न अहिकरण-करण कारावण-पावकम्मविरते रसमलाया होता है वह दुर्गति में ले जाने वाले पाप कर्मों के करने और मोग्गहराई।
करवाने के दोष से निस्य विस्त होता हुआ दत्त अनुज्ञात अवग्रह
की रुचि वाला बनता है। ततीय-१. पीट-फलग-सज्जा-संथारगट्टयाए सखा न छिदि- तृतीय-(१) पीढ़ा, फलक, शय्या या संस्तारक के लिए वृक्ष यहा ।
नहीं काटना चाहिए। २. रमेण मेवणेण सज्जा कारेयम्वा ।
(२) छेदन-भेदन क्रिया कर शय्या नहीं बनवानी चाहिए । १. जस्सेय उवस्सए वसेन्ज, सेज तत्थेव गवेसेज्जा।
(३) जिसके उपाश्रय में निवास किया हो वहीं शय्या की
गवेषणा करनी चाहिए। ४. य विसमं समं करेजा।
(४) ऊँची-नीची जमीन को सम नहीं करना चाहिए । ५. भिवाय-पवाय उस्मुगुस ।
(५) हवा का अभाव हो या अधिक हवा आती हो तो कुछ
भी प्रतिकार नहीं करना चाहिए । ६.२ इंस-मसगेमु खुभियध्वं ।
(६) संस या मच्छरों का उपद्रव हो तो भी क्षोभ नहीं
होना चाहिए। ७. अग्गी धूमो य न काययो।
(७) अग्नि या धुआँ नहीं करना चाहिए। एवं संगम-बहले, संघर-बहले. संसबहूसे. समाहि-बहुले, धीरे इस प्रकार जो पृथ्वीकार आदि जीवों के रक्षण में तत्पर. कारण फासयंतो सवयं अमप्पागजुसे समिए एगे चरेग्ण आश्रय रोकने में तत्पर, कषाय और इन्द्रियों के निग्रह में तत्पर,
चित्त-समाधि में तत्पर, धैर्यवान्, काया से सर्वदा (न केवल मनोरथ से) पारिव का पालन करता हुआ अध्यात्मध्मान से युक्त होता है, वह रागादि से रहित होकर धर्म का आचरण
करता है। एवं सेज्जासमितिजोगेश भाविको भबई अंतरपा ।
इस प्रकार जिसका अन्तरात्मा शय्यासमिति के योग से निश्चं अहिकरण-करण-कारावण-पायकम्मविरते बतमणुमाय- भादित होता है वह दुर्गति में ले जाने वाले पाप कमों के करने मोग्गहराई।
के दोष से विरत होता हुआ दत्त अनुज्ञात अवग्रह को रुचि वाला
बनता है। चउत्थं-साहारण-पिंपातलामे भोत्तम्वं संजएण समियं । चतुर्थ- समान साधमिकों को प्राप्त आहार आदि भी आज्ञा
प्राप्त करके उपयोग में लेने चाहिए । म साय-पुपाहिक, मानगियं, न सुरिय, न चवलं, न साधर्मिकों के आहार में से शाक, दाल आदि अधिक नहीं साहस, न य परस्स पीलाकर सावज्ज ।
लेने चाहिए, भोजन का भी अधिक माग नहीं लेना चाहिए, (अन्यथा साधुओं को अप्रीति होती है) ग्रास वेग से नहीं निगलने चाहिए, ग्रास मुंह में जल्दी-जल्दी नहीं रखने चाहिए, आहार करते समय कायिक चपलता नहीं रखनी चाहिए, सहसा (हितमित-पथ्य का विवेक किये बिना) आहार नहीं करना चाहिए, "दूसरों को पीड़ा हो" इस प्रकार आहार नहीं करना चाहिए,
सावद्य (सदरेष) आहार नहीं करना चाहिए। तह भोत्तम्वं जह से तत्तियवयं न सीवति ।
आहार इस प्रकार लेना चाहिए जिससे तृतीय नत खण्डित
न हो। साहारम-पिस्पायलामे सहम अविनावाणक्य-नियम-वेरमगं। समान स्वमिकों से प्राप्त आहार आदि के (आज्ञा लेकर)
लेने में निश्चित रूप से सूक्ष्म अदत्तादान विरमण व्रत का पालन होता है।