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________________ तृतीय महावत की पांच भावना चारित्राचार (३०७ + + + + + + + तृतीय महाव्रत परिशिष्ट अदिण्णावाण महब्वयस्स च भावणाओ तृतीय अदत्तादान महाव्रत की पांच भावना४४.१.१. जग्गह्मणुष्णवणया, ४४७. (१) अवग्रह-अनुज्ञापनता । २. उगहसीमगाणगया, (२) अवग्रहसीम-ज्ञापनता। ३. सयमेव उम्गझं अणुगिम्हणया, (३) स्वयमेव अवग्रह-अनुग्रहणवा । ४. साहम्मिय उपगहं अणुण्णविय परिमुंजणपा, (४) साधर्मिक-अवग्रह-अनुज्ञापनता । ५. साहारणभत्तपाणं अणुण्ण विय परिभुजणया । (५) साधारण-भक्तपान अनुज्ञाप्य परि जनता। -- सम. २५, मु. १ तस्स हमा पच भावणाओ होंति परवब्य-हरणबेरमणपरि- परम्पहरण-विरमण (अदत्तादान त्याग) व्रत की पूरी तरह रक्ख णट्टयाए । रक्षा करने के लिए ये पाँच भावनाएँ हैंपढम--देवकुल-समप्पा -आवसह-रुक नमूल-आराम-कंवरागर- प्रथम-देवकुल, सभा-महाजनस्थान, प्रपा, परिवाजक गिरिगुहा-कम्म-उज्जाण-जागसाता कुवियसाला-व-सुन्नघर- निवास, वृक्ष मूल, उद्यान, कन्दरा, खान, गुफा, चूना बनाने का सुसाण लेग-आवणे, अनमि य एवमावियमि वग-मट्टिप-योग- स्थान, पानशाला, गृह सामग्री भरने का स्थान, मण्डप, शून्यगृह, हरित-तस-पाण-असंसते अहाकडे फासुए विवितं पसस्थे श्मशान, लयन -शैल गह, विक्रयशाला आदि अन्य ऐसे ही स्थान अवस्सए होइ बिहरियाबं । जो सचित्त पानी, मिट्टी, बीज, हरितकाय त्रस, प्राणियों से रहित हो और गृहस्व ने अपने उपयोग के लिए बनवाया हो । प्रासुक हो तथा स्त्री-पुरुष-पण्डक से रहित ओर प्रशस्त हो एसे उपाश्रय में साधु को रहना चाहिए। आहाफम्मबहाते य जे से आसिस-समंजिओचलित-सोहिय- जो स्थान आधाकर्मबहुल हो अर्थात् जहाँ साधु के निमित छापण-दूमण-लिपण-अलिपण-अलण-भंगाचालणं, अंतो बहिं पानी का छिड़काव किया हो, माड़ से साफ किया हो, पानी से च आजमो जस्य भट्ट, संजयाण अट्टा बजेयको बस्सओ खूब सींचा हो, चन्दन माला आदि से सुशोभित किया हो, चटाई से सारिसए सुत्त पडिक? । आदि विछाई हो, कलई से श्वेत किया गया हो, गोबर आदि से लीपा हो, बार-बार लीपा हो, गरम करने के लिए या प्रकाश के लिए आग जलाई हो, बर्तन इधर-उधर किये हों इस प्रकार साधुओं के लिए जिस उपाश्रय के अन्दर या बाहर जीवों की यधिक हिंसा की गई हो ऐसा आगम निषिद्ध उपाश्रय साघु के लिए वर्जनीय है। एवं विचित्तवास-वसहि-समितिजोगेण भाविओ भवई अंतरप्पा। इस प्रकार जिसका अन्तरात्मा विविक्तवाससमिति से निचं अहिकरण-करण-कारावण-पावकम्माविरओ इसमगु- भाबित होता है वह दुर्गति में ले जाने वाले पापकर्मों के करने प्राय-ओग्गहरुई। और करवाने के दोष से नित्य विरत होता हुआ दत्त अनुज्ञात अवग्रह की रुचि वाला बनता है। बितीयं आरामुज्जाण-काणण-वण पदेसभागे जं किंचि इक द्वितीय :-आराम, उद्यान, कानन और बन प्रदेश में जो च, कठिणग च जंतुन प पर मेर-कुच्च-फुस-सम-पलाल. कोई ककड़न, कठिनग, जतुग परा, मुंज, कुश, दूब, पलाल, मूयग-वलय-पुत्फ, फस-तयप्पवास-कंद-मल-तण कट्ट-सबका मूयग, बल्बज, पुष्प, फल, छाल, अंकुर, मूल, तृण, काष्ठ कांकरी राबो गेहा, सेज्जीबहिस्स अट्ठा न कप्पए प्रोग्गहे अरिन्नमि आदि संस्तारक के लिए आवश्यक हो वे आज्ञा मांग कर लेने गिहे। कल्पते हैं, बिना आज्ञा अदत्त लेना नहीं कल्पता। जे हणि हणि जगह अणनविय गेपिहयवं । प्रतिदिन आज्ञा लेकर लेना कल्पता है ।
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
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