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________________ ३०६) परणानुमोग अन्य साधु के उपकरण-उपयोग हेतु अवग्रह ग्रहण करना अण्ण समणोवगरणस्स ओगह बिहि अन्य साधु के उपकरण-उपयोग हेतु अवग्रह ग्रहण विधान-- ४४२. जेहि विसद्धि संपवहए तसिऽपि याई छत्तयं वा गं वा ४४२. जिन साधुओं के साथ या जिनके पास वह प्रवजित हुआ है. मतयं वा-जाद-चम्मरणम वा तेसि पुरवामेव उगह अण- या विचरण कर रहा है, या रह रहा है, उनके भी छत्र, दण्ड, गुपणषिय पडिले हिय पमजिजय तो संजयामेव ओगिण्हेज मात्रक (भाजन) : यावत् - चच्छेदनक आदि उपकरणों को वर पगिन्हेज था। पहले उनसे अवग्रह अनुहा लिए बिना तथा प्रतिलेखन प्रमार्जन -आ. सु. २, अ.७, उ १. सु. ६०७ किये बिना एक या अनेक बार ग्रहण न करे । अपितु उनसे पहले वग्रह-अनुजा (ग्रहण करने की आज्ञा) ले कर, तत्पश्चात् उराका प्रतिलेखन-प्रमार्जन करके फिर संयमपूर्वक उस वस्तु को एक या अनेक बार ग्रहण करें। रज्ज परियट्टिए ओगह विहि राज्य परिवर्तन में अवग्रह अनुज्ञापन-- ४४३. से रज्जपरियट्टस संपरसु अबोगडेसु अग्लोच्छिन्नेसु अपर ४४३. राजा की मृत्यु के बाद जब तक नये राजा का अभिषेक परिगहिएसु सस्चे ओगहास पुठवाणुनवगा चिटुर अहा- हो राज्य अविभक्त एवं पातुओं द्वारा अनाक्रान्त रहे । राजवंश लंबमवि मोरगहे। अविच्छिन्न रहे और राज्य व्यवस्था पूर्ववत् रहे तब तक साधु गास्चियों के लिए पूर्वगृहीत आज्ञा ही अवस्थित रहती है।। से रज्जपरियट्टमु असंथवेसु योगडेसु बोक्छिन्नेसु परपरिम्ग- राजा की मृत्यु के बाद राज्य विभक्त हो जाम या शत्रुओं हिएसु भिम्भावस्स अट्टाए दोच्चपि ओग्गाहे अणुनवेयध्वे द्वारा आक्रान्त हो जाये। राजवंश विच्छिन्न हो जाये या राज्य सिया। व्यवस्था पूर्ववत् न रहे तो साधु-साध्वियों को भिक्षु-भाव की -बब. उ. ७. मु. २६-२७ रक्षा के लिए दूसरी बार आज्ञा लेनी चाहिए। अपदिष्णादाणस्स वायच्छित सुतं अल्प अदत्तादान का प्रायश्चित्त सूत्र४४४.जे भिक्खू लहुसगं अवत्तं आइयह आइयन्त वा साइज ४४४. जो भिक्षु अल्प अदत्तादान लेता है, लित्राता है, लेने वाले का अनुमोदन करता है। से सेवमाणे आवज्मह मातियं परिहारहाणं अणुम्धाइयं । उसे मासिक अनुद्घातिक परिहारिक स्थान (प्रायश्चित्त) -नि.उ.२, सु २० आता है । सेह-अबहरण-विप्परिणामण पायच्छिस सुतं शिष्य के अपहरण का या उसके भाव परिवर्तन का प्राय श्चित्त सूत्र४४५. भिक्खू सेहं अबहर अवहरतं वा साइज्जद । ४४५, जो भिक्षु शिष्य का अपहरण करता है करवाता है, - करने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्खू सेहं विपरिणामेड विपरिणामतं वा साहज्जा जो भिक्षु शिष्य के पूर्व गुरु के प्रति अश्रया उत्पन्न करता है, करवाता है, करने वाले का अनुमोदन करता है। तं सेवमाणे आवाचा उम्मासियं परिहारट्टा अम्बाइयं। उसे चातुर्मासिक अनुयातिक परिहारिक स्थान (प्रायश्चित्त) -नि. उ.१०, मु.६.१० आता है। आयरियस अवहरण-विप्परिणामण-पाछित्त सुतं- आचार्य के अपहरण या परिवर्तनकरण का प्रायश्चित्त ४४६. जे मिन्यू विसं अवहरद अबहरतं वा साइजाइ। जे मिरवू विसं विप्परिणामेह विरिणामतं वा साइजई। ४६. जो भिक्षु आचार्य का अपहरण करता है. करवाता है, करने वाले का अनुमोदन करता है । जो भिक्षु आचार्य का परिवर्तन करता है, करनाता है, करने वाले का अनुमोदन करता है। उसे चातुर्मासिक अनुदातिक परिहार स्थान प्रायश्चित्त) आता है। त सेवमागे आवमा घाउम्मासियं परिहारहाणं अणुरबाइयं। --नि. र. १०, सु. ११-१२
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
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