SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 221
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १८८] वरणामुपोग एकान्त-दृष्टि निषेध सूत्र २८९ समुस्छिजिहिति सत्यारो, सम्वे पाणा अलिसा । गंठीगा वा भविस्तंति, सासयं ति च णो वदे॥ एएहि वोहि डाहि, वबहारो ण बिज्जई। एएहि वोहि ठाणेहि, अणायारं तु जाणई ॥ जे देति खुड्गा पागा, अनुबा संति महालया। सरिसं तेहिं वेर ति, असरिसं ति य णो दे॥ एतेहिं बोहिं ठाणेहि, ववहारो विजती । एतेहि दोहि ठाणेहि, अणाणारं जागए॥ अहाकमाई मुंअंति, अण्णमण्ण सकामुणो। जवलिते ति जाजा, अणुवलिते ति वा पुणो ।। एतेहि बोहि ठाहि. वबहारो ग विज्जतो। एतेहि बोहि ठाणेह, अगाधारं तु जागए ।। प्रणास्ता (शासनप्रवतंक (तीर्थकर तथा उनके शासनानुगामी भी भव्य जीव) एक दिन) भवोच्छद (कालक्रम से मोक्षप्राप्ति कर लेंगे । अथवा सभी जीव परस्पर विसदृश (एक समान नहीं) हैं, या सभी जीव कर्मप्रन्थि से बद्ध (अन्त्रिक) रहेंगे, अथवा सभी जीव शाश्वत (रादा स्थायी एकरूप) रहेंगे, अथवा तीर्थकर, सदैव शाश्वत (स्थायी) रहेंगे। इत्यादि एकान्त अधन नहीं बोलने चाहिए। स्योंकि इन दोनों (एकान्तमय) पक्षों से (शास्त्रीय या लौकिक) ध्यवहार नहीं होता। अतः इन दोनों एकान्तपक्षों के ग्रहण को अनाचार समझना चाहिए। (इस संसार में) जो (एकेन्द्रिय आदि) क्षुद्र (छोटे) प्राणी हैं, अथवा जो महाकाय (हाथी, ऊँट, मनुष्य आदि) प्राणी है, इन दोनों प्रकार के प्राणिवों (की हिंसा से, दोनों) के साथ समान ही वैर होता है, अथवा समान वैर नहीं होता; ऐसा नहीं कहना चाहिए। क्योंकि इन दोनों ('समान वर होता है या समान वैर नहीं होता";) एकान्तमय वचनों से व्यवहार नहीं होता। अतः इन दोनों एकान्त बरनों की अनाचार जानना चाहिए। आधाकर्म दोषयुक्त आहारादि का जो साधु उपभोग करते हैं, बे दोनों (आधानमंदोषयुक्त आहारादिदाता तथा उपभोक्ता) परस्पर आने (पाप) कर्म से उपलिप्त होते हैं. अथवा उपलिप्त नहीं होते, ऐसा जानना चाहिए। इन दोनों एकान्त मान्यताओं से व्यवहार नहीं चलता है, इसलिए इन दोनों एकान्त मन्तव्यों का आश्रय लेना अनाचार समझना चाहिए। यह जो (प्रत्यक्ष दिखाई देने वाला) औदारिक शरीर है, आहारक शरीर है, और कार्मण शरीर है, तथैव वैक्रिय एवं तेजस् शरीर है, ये पांचों (राभी) शरीर एकान्ततः भिन्न नहीं हैं. एक ही है) अथवा ये पांचों सर्वथा भिन्न-भिन्न ही हैं; ऐसे एकान्तवचन नहीं कहने चाहिए। तथा सब पदार्थों में सब पदार्थों की शक्ति (वीर्य) विद्यमान है, अथवा सब पदार्थों में सबकी शक्ति नहीं ही है। ऐसा एकान्तकथन भी नहीं करना चाहिए। क्योंकि इन दोनों प्रकार के एकान्त विचारों से व्यवहार नहीं होता । अतः इन दोनों एकान्तमय विचारों का प्ररूपण करना अनाचार समझना चाहिए । ___लोक नहीं है या अलोक नहीं है, ऐसी संज्ञा (बुद्धि--समझ नहीं रखनी चाहिए अपितु) लोक है और अलोक (आकाशास्तिकायमात्र) है, ऐसी संज्ञा रखनी चाहिए। च तमेव च। जमिदं उरालमाहारं, कम्मगं सम्वत्य वीरियं अस्थि, परिय सदयस्थ बीरियं ॥ एतेहिं बोहि ठाहि, यवहारो ण विनती। एतेहि कोहि ठाणेहि, अणायार तु जाणए । णस्थि लोए अलोए वा, व सणं निवेसए । अस्थि लोए अलोए था, एवं सणं निश्सए ।
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy