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________________ सूत्र २८७-२८१ एकान्त-दृष्टि निषेध दर्शनाचार [१८७ --- कम्मं च खलु मए अस्पाइटु समणाउसो ! से उदए बुइते, हे आयुष्मान् श्रमणों ! मैंने अपनी कल्पना से विचार करके कर्म को इस पुष्करिणी का जल कहा है। काममोगा य खलु मए अप्पाहट्ट समणाउसो ! से सेए ते वुइते, आयुष्मान् श्रमणो ! मैंने अपनी कल्पना से स्थिर करके काम भोगों को पुष्करिणी का कीचड़ कहा है। मणं-जाणवयं च खलु मए अप्पाहट्ट समणाउसो। से बहवे आयुष्मान् श्रमणो ! मैंने अपनी दृष्टि से चिन्तन करके आर्य पउमवरपुण्डरी बुइता, देशों के मनुष्यों और जनपदों (देशों) को पुष्करिणी के बहुत से श्वेतकमल कहा है। रापाणं च खलु मए अप्पाटु समणाउसो ! से एगे महं आयुष्मान् श्रमणो। मैंने अपनी इच्छा से अपने मन में पउमवरपॉडरीए बुडते. निश्चित करके राजा को उस पुष्करिणी का एक महान् श्रेष्ठ स्वेतकमल (पुण्डरीक) कहा है। अन्नउस्थिया यलु मए अल्पाहट्ट समणाउसो! से चत्तारि हे आयुष्मान् धमणो ! मैंने अपनी इच्छा से मानकर अन्यपरिसजाता बुइता, तीथिकों को उस पुष्करिणी के कीचड़ में फंसे हुए चार पुरुष बुइतं । धम्म च खलु भए अप्पाहट्ट समणाउसो ! से भिवडू बुद्दले, आयुष्मान् श्रमणो ! मैंने अपनी बुद्धि से चिन्तन करके धर्म को वह भिक्षु बताया है। धम्मतित्थं च स्खलु मए अप्पाहट्ट समजाउसो! से तीरे युइए, आयुष्मान् श्रमणो ! मैंने अपनी इच्छा से अपने आप सोचकर धर्मतीर्थ को पुष्करिणी का तट बताया है। धम्मकहं च खलु मए अप्पाहट्ट समणाउसो ! से सद्दे सुरते, आयुष्मान् श्रमणो ! मैंने अपनी आत्मा में निश्चित करके धर्मक्या को उस भिक्षु का वह शब्द (आवाज) कहा है। नेवाणं च खलु मए अप्पाहट्ट समणाउसो! से उत्पाते आयुष्मान् श्रमणो ! मैंने अपने मन में स्थिर करके निर्वाण बुद्धते, (समस्त कर्मक्षयरूप मोक्ष या सिद्धशिला स्थान) को श्रेष्ठ पुण्डरीक का पुष्करिणी से उठकर बाहर आना कहा है। एवमेयं च खलु मए अप्पाहट्ट समणाउसो से एवमेयं (संक्षेप में) आयुष्मान् घमणो ! मैंने इस (पूर्वोक्त) प्रकार से अपनी आत्मा में निश्चय करके (यत्किचित् साधर्म्य के कारण) -सूव, सु. २, अ. १, सु. ६४४-६४५ इन पुष्करिणी आदि को इन लोक आदि के दृष्टान्त के रूप में प्रस्तुत किया है। एमंतदिट्ठी णिसेहो एकान्त-दृष्टि निषेध२७१. अणावीयं परिणाय, २५१. "यह (चतुर्दशरज्ज्वात्मक एवं धर्माधर्मादिषद्द्व्यरूप) अमवावगे ति वा पुणो । लोक अनादि (आदि-रहित) और अनन्त है," यह जानकर विवेफी जासतमसासते यावि, पुरुष यह लोक एकान्त नित्य (शाश्वत्त) है, अथवा एकान्त अनित्य इति बिढि न धारए॥ (अशाश्वत) है। इस प्रकार की दृष्टि, एकान्त (आग्रहमयी बुद्धि) न रखें। एतेहि गोहि ठाणेहि, इन दोनों (एकान्त नित्य और एकान्त अनित्य) पक्षों (स्थानों) वहारो ण विज्जती। से व्यवहार (शास्त्रीय या लौकिक व्यवहार) चल नहीं सकता। एतेहि बोहि ठाहि, अतः इन दोनों एकान्त पक्षों के आश्रय को अनाचार जानना अगायारं तु जागए । चाहिए।
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
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