________________
१८६]
परणानुयोग
दृष्टान्तों के दाष्टान्तिक को योजना
सूत्र २७६-२८०
एवं से भिक्खू परिण्णासकम्मे परिणामसंखे परिष्णागिहवासे इस प्रकार का भिक्षु कर्म (कर्म के स्वरूप, विपाक एवं उपाउससंते समिते सहिए सबा जते ।
दान) का परिजाता, संग (बाह्य-आभ्यन्तर-सम्बन्ध) का परिज्ञाता, तथा (निःसार) गृहबास का परिज्ञाता (मर्मक) हो जाता है। बह (इन्द्रिय और मन के विषयों का उपशमन करने से) उपशान्त, (पंचसमितियों से युक्त होने से) समित, (हित से-शानादि से युक्त होने से-) सहित एवं सदैव यतनाशील अथवा संयम में प्रयत्न
शील होता है। सेयं वयगिज्जे तं जहा
सस साधक को इस प्रकार (आगे कहे जाने वाले विशेषणों में से किसी भी एक विशेषणयुक्त शब्दों से) कहा जा सकता है,
जैसे किसमने ति वा माहणे ति या खते ति वा बंते ति वा गुत्ते ति वह श्रमण है, या माहन् (प्राणियों का हनन मत करो, या भुत्ते ति वा इसी ति वा मुणीति वा कति ति वा विवू ति ऐसा उपदेश करने वाला या ब्रह्मचर्यनिष्ठ होने से प्राह्मण) है, वा भिजू ति वा सूहे ति वा तिरछी ति वा चरणकरणपारविदु अथवा सान्त (क्षमाशील) है, या दान्त (इन्द्रियमनोवशीकर्ता) है,
अथवा गुप्त (तीन गुप्तियों से गुप्त) है, अथवा मुक्त (मुक्तवत्), तथा महर्षि (विशिष्ट तपश्चरणयुक्त) है, अथवा मुनि (जगत् की त्रिकालावस्था पर मनन करने वाला) है, अथवा कृती (पुष्यवान् -सुकृति या परमार्थपण्डित), तथा विद्वान् (अध्यारमविद्यावान्) है, अथवा भिक्षु (निरवद्य भिक्षाजीवी) है, या वह रूक्ष (अन्ताहारी-प्रान्ताहारी) है, अथवा तीरार्थी (मोक्षार्थी) है, अथवा चरण
करण (मूल-उसर गुणों) के रहस्य का पारगामी है। सि चैमि। -सूय. सु. २, अ. १, सु, ६६२-६६३ -ऐसा मैं कहता हूँ। विट्ठन्तस्स णिगमणं
दृष्टान्तों के दार्टान्तिक की योजना२८०. किट्टिते णासे समगाउसो ! अट्ट पुण से जाणितम् भवति । २८०. (श्रमण भगवान महावीर स्वामी कहते हैं-)"आयुष्मान
श्रमणो ! तुम्हें मैंने यह दृष्टान्त (ज्ञात) कहा है; इसका अर्थ
(भाव) तुम लोगों को जानना चाहिए।" भंते ! ति समयं भगवं महाबीरं निगंथा य निगंथीओ प "हाँ, भदन्त !" कहकर साधु और साध्वी श्रमण भगवान् वंदति नमसंति, वंचित्ता नमंसित्ता एवं वदासी-किट्टिले महावीर को वन्दना और नमस्कार करते हैं। वन्दना-नमस्कार नाए समणाउसो ! अट्ठपुण से न जाणामो।
करके भगवान महावीर से इस प्रकार कहते हैं- "आयुष्मन् क्षमण भगवान् ! आपने जो दृष्टान्त बताया उसका अर्थ (रहस्प) हम
नहीं जानते।" समणाउसो ! त्ति समणे भगवं महावीरे ते य बहवे निग्गंथा (इस पर) श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने उन बहुत-से य निग्गंधीओ य आमंतिता एवं बवासी-हता समगाउसो! नियों और नियन्थिनियों को सम्बोधित करके इस प्रकार कहाआइक्खामि विभावेमि किट्टमि पवेदेमि सअट्ट सहेर्ड सनि- "आयुष्मान् श्रमण-श्रमणियों ! मैं इसका अर्थ (रहस्य) बताता हूँ, मितं भुज्जो मुज्जो जवसेमि ।
अर्थ स्पष्ट (प्रकट) करता हूँ। पर्यायवाची शब्दों द्वारा उसे कहता है, हेतु और दृष्टान्तों द्वारा हृदयंगम कराता हूँ: अर्थ, हेतु और
निमित्त सहित उस अर्थ को बार बार बताता हूँ।" से बेमि–सोये च खलु मए अप्पाहट्ट समणाउसो ! सर (सुनो.) उस अर्थ को मैं कहता हूँ-"आयुष्मान् श्रमणो ! पुक्खरणी बुद्धता,
मैंने अपनी इच्छा से मानकर (मात्र रूपक के रूप में कल्पना कर) इस लोक को पुष्करिणी कहा है।