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________________ सूत्र २५६ उत्तम श्वेतकमल को पाने में सफल : निःस्पृह भिक्षु वर्शनाचार [१५ पबरपोंडरीय पग्गहणे निरीहो भिक्खू सफलो- उत्तम श्वेतकमल को पाने में सफल : निःस्पृह भिक्षु अह मिक्स्यू नहे तोरडी खेयाणे कुसले पंडित वियत मेहावी इसके पश्चात् राग-द्वेषरहित (रूक्ष-अस्निग्ध घड़े के समान अवाले मग्गत्थे मग्गवि मगरस गसिपरक्कमण्णू अन्नतरीओ कर्ममल-तेपरहित), संसार-सागर के (तीर उस पार जाने का विसाओ अणुविसाओ वा आगम्म त पुक्खरणी, तीसे पुक्ख- इच्छुक) खेदज्ञ या क्षेत्रश, यावत्--(पूर्वोक्त सभी विशेषणों से रणीए तीरे ठिच्चा पासति तं महं एगं पउमवर-पोंडरीयं-जाव- मुक्त) मार्ग की गति और पराकम का विशेषज्ञ तथा निर्दोष परिवं, भिक्षामात्र से निर्वाह करने वाला साधु किसी दिशा अथवा विदिशा से उस पुष्करिणी के पास आकर उस (पुष्करिणी) के तट पर खड़ा होकर उस श्रेष्ठ पुण्डरीक कमल को देखता है, जो अत्यन्त विशाल-यावत-(पूर्वोक्त गुणों से युक्त) मनोहर है। ते व चत्तारि पुरिसमाते पासति पहीणें तीरं प्रपत जाव- और वहाँ वह भिक्षु उन शारों पुरुषों को भी देखता है, जो अंतरा पोक्खरणोए सेयंसि विसणे। किनारे से बहुत दूर हट चुके हैं, और उत्तम श्वेतकमल को भी नहीं पा सके हैं। जो न तो इस पार के रहे हैं, न उस पार के, जो पुष्करिणी के बीच में ही कीचड़ में फंस गए हैं। तते गं भिश्व एवं पदासी इसके पचात उस भिक्षु ने उन चारों पुरुषों के सम्बन्ध में अही गं इमे पुरिसा अखेतण्या-जावणो मग्गरस पतिपरक्क- इस प्रकार कहा .-' अहो ! ये चारों व्यक्ति खेदज्ञ नहीं है, परवत्तमण्णू जंगं एते पुरिसा एवं मन्ने "अम्हेयं परमवरपोंडरीयं (पूर्वोक्त विशेषणों से सम्पन्न) मार्ग की गति एवं पराक्रम से उनिविवखस्सामो" णो य खलु एवं पउमवरपोंडरीय एवं अनभिज्ञ हैं। इसी कारण यह लोग समझने लगे कि "हम लोग उम्रक्खेतध्वं जहा णं एते पुरिसा मम्ने, इस श्रेष्ठ श्वेतकमल को निकाल कर ले जाएंगे, परन्तु यह उत्तम श्वेतकमल इस प्रकार नहीं निकाला जा सकता, जैसा कि ये लोग समझते हैं।" अहमसी मिखू लूहे तोरटी खेपणे-नाव-मागस्स गति-परश्क- "मैं निर्दोष भिक्षाजीवी साधु हूं, राग-द्वेष से रहित (रूक्षमण्णू, अहमेयं पउमवर पोंडरीय समिक्खिस्सामि त्ति कटु निःस्पृह) हूं। मैं संसार सागर के पार (तौर पर) जाने का इच्छुक इति वच्चा, हूं, क्षेत्र (खेदज) हूं-यावत् - जिस मार्ग से चलकर साधक आने अभीष्ट साध्य की प्राप्ति के लिए पराक्रम करता है, उसका विशेषज्ञ हूँ 1 मैं इस उत्तम श्वेतकमल को (पुष्करिणी से बाहर) निकालूंगा, इमी अभिप्राय से यहां आया हूं।" से मिक्खू णो अभिकम्मे तं पुस्खणि, तीसे पुक्सरपीए तीरे यों कहकर वह साबु उस पुष्करिणी के भीतर प्रवेश नहीं ठिन्या सई कुज्जा--"उप्पताहि खलु भो उमवरपोंडरीया ! करता, वह उस (पुष्करिणी) के तट पर खड़ा खड़ा ही आवाज उप्पताहि खलु मो पउमबरपोंडरोया।" देना है-"हे उत्तम श्वतकमल ! वहां से उठकर (मेरे पास) आ अह से उप्पतिते पउपवरपोंडरिए । जाओ, आ जाओ ! यों कहने के पश्चात् वह उत्तम पुण्डरीक उस -सूरा. मु. २, अ.१.मु.६४३ पुष्करिणी से उटकर (या बाहर निकलकर) आ जाता है। एवं से भिक्खू धम्मट्ठी घम्मवि नियागाडिवणे, इस प्रकार पूर्वोक्त विशेषणयुक्त) वह भिक्षु धर्मार्थी (धर्म से ही प्रयोजन रखने वाला) धर्म का ज्ञाता और नियाग (संयम या विमोक्ष) को प्राप्त होता है। से जहेयं युतियं, अयुवा पत्ते पउभवरपोंडरोयं अबुवा अपत्ते ऐसा भिक्ष जैसा कि इस अध्ययन में पहले कहा गया था, परमवरयोंडरीयं। पूर्वोक्त पुरुषों में से पांचा पुरुष है। वह (भिक्षु) श्रेष्ठ पुण्डरीक बमल के समान निर्माण को प्राप्त कर सके अथवा उस श्रेष्ठ पुण्डरीक कमल को (मति, श्रुत, अवधि एवं मनःपर्याय ज्ञान तक ही प्राप्त होने से) प्राप्त न कर सके, (वही सर्वश्रेष्ठ पुरुष है।)
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
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