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धरणानुयोग
श्रेष्ठ पुण्डरीक को पाने में असफल चार पुरुष
सूत्र २७६
गो माविक णो मम्गस्स गतिपरक्कमपण, जंगं एते पुरिसा रित मार्ग पर स्थित मही है, तथा जिस मार्ग पर चलकर जीव एवं मण्णे "अम्हेत पउमवरपोंडरीय णिवखेस्सामो', पोय अभीषष्ट को सिद्ध करता है, उसे ये नहीं जानते। इसी कारण ये खलु एयं पउमवरपोंडरीयं एवं चणिक्खेतवं जहा ग एए दोनों पुरुष ऐसा मानते थे कि "हम इस उत्तम श्वेतकमल को पुरिसा मम्णे।
उखाड़कर बाहर निकाल लाएंगे,” परन्तु इस उत्तम श्वेतकमल को इस प्रकार उखाड़ लाना सरल नहीं, जितना ये दोनों पुरुष
मानते हैं।" अहमंसि पुरिसे खेतन्ने कुसले जिते वियते मेहावी अवाले "अलबत्ता मैं खेदज्ञ (क्षेत्रज्ञ), कुशल, पण्डित. परिपत्रमरगये मग्गधिक मगगल्स गतिपरमकमाण, अहमेयं पउभवर- बुद्धिसम्पन्न, मेधाबी, युवक, मार्गधेत्ता, मार्ग को गतिविधि और पोतरीय उष्णिवखेस्सामि इति वच्चा से पुरिसे अभिक्कमे तं पराक्रम का ज्ञाता हूँ। मैं इस उत्तम श्वेतकमल को बाहर निकाल पुक्वरणि,
कर ही रहूंगा, मैं यह संकल्प करके ही यहां आया हूँ। (यों
बहकर उस तीसरे पुरुष ने पुष्करिणी में प्रवेश किया और -जाव-जावं च में अभिकम्मे ताय तावं च णं महंते ज्यों-ज्यों उसने आगे कदम बढ़ाए, त्यों-त्यों उसे बहुत अधिक पानी उदए महते सेए साव अंतरा सेयंसि निसणं तच्चे पुरिसजाए। और अधिकाधिक कीचड़ का सामना करना पड़ा। अत: वह -सूय. गु. २, अ.१, गु. ६४१ तीरारा व्यक्ति भी कीचड़ में वहीं फंसकर रह गया और अत्यन्त
दुःखी हो गया । वह न इस पार का रहा और न उस पार का।
यह तीसरे पुरुष की कया है। अहावरे चउत्थे पुरिसमाए।
अब चौथे पुरुष का वर्णन किया जाता है । अह पुरिसे उत्तरातो बिसातो आगम्मत पुक्खरणि तोसे पुक्छ- तीसरे पुरुष के पश्चात् चौधा पुरुष उत्तर दिशा से उस रणोए तीरे ठिच्चा पासति एग पउमत्ररपोटरीयं अपुरुषद्वितं पुष्करिणी के पास आकर, किनारे खड़ा होकर उस एक महान् -जाद-पडिरूवं ।
श्वेतकमल को देखता है, जो विशिष्ट रचना से युक्त--यावत्
(पूर्वोक्त विशेषणों से विशिष्ट) मनोहर है। तथा वह वहाँ (उस ते तत्थ तिषिण पुरिसजाते पासति पहोणे तीरं अस्पत्ते-जाव- पुष्करिणी में) उन तीनों पुरुषों को भी देखता है, जो तीर से सेयंसि निसणे।
बहुत दूर हट चुके हैं और श्वेतकमल तक भी नहीं पहुँच सके हैं
अपितु पुष्करिणी के बीच में ही कीचड़ में फंस गए हैं । तते णं से पुरिसे एवं वदासो-अहो गं हमे पुरिसा अखेत्तणा तदनन्तर उन तीनों पुरुषों को (देखकर उन) के लिए चौथे -जाव-यो मगरस गतिपरक्कमष्णू, जग्णं एते पुरिसा एवं पुरुष ने इस प्रकार कहा-"अहो ! ये तीनों पुरुष खेदज्ञ (क्षेत्रज्ञ) माणे-अम्हेतं पउमवरपॉडरोयं उपिणक्खिस्सामो। यो खलु नहीं है, यावत् - (पूर्वोक्त विशेषणों से युक्त) मार्ग की गतिएवं यउमवरपॉरीयं एवं उपिणषखेयन्वं जहा पं एते पुरिमा विधि एवं पराक्रम में विशेषज्ञ नहीं है। इसी कारण ये लोग सममणे ।
झते हैं कि "हम उस श्रेष्ठ पुण्डरीक कमल को उखाड़कर ले आएंगे, किन्तु ये उत्तम श्वेतकमल इस प्रकार नहीं निकाला जा
सकता, जैसा कि ये लोग मान रहे हैं। अहमसि पुरिसे खेयाणे-जाव-मग्गस्स गतिपरक्कमण्णू, अहमेयं "मैं खेदश पुरुष हूँ-धावत उस मार्ग की गतिविधि पऊमवरपौधरीय उपिणक्खिस्सामि इति वचा से पुरिसे और पराक्रम का विशेषज्ञ हूँ। मैं इस प्रधान श्वेतकमल को अभिक्कमे तं पुक्करणि,
उखाड़कर ले आऊँगा इसी अभिप्राय से मैं होकर यहाँ आया है।" जाव जावं च णं अभिक्कमे ताव तावं च णं महते उबए यों कहकर वह चौथा पुरुष भी पुष्करिणी में उतरा और महते सेते-जाव-विसम्म
ज्यों-ज्यों वह आगे बढ़ता गया त्यों-त्यों उसे अधिकाधिक पानी और अधिकाधिक कीचड़ मिलता गया ! वह पुरुष उस पुष्करिणी के बीच में ही भारी कीचड़ में फंसकर दुःखी हो गया। अब न
तो वह इस पार का रहा, न उस पार का। ब्रउत्थे पुरिसजाए। —सूर्य. सु. २, अ. १, सु. ६४२ इस प्रकार चौथे पुरुष का भी यही हाल हुआ।