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________________ ५४०] घरणानुयोग शुद्ध आहार को गवेषणा परिमोगेषणा सूत्र ८६१-६६२ ६. गंतुं पच्चामता। (६) गत्वाप्रत्यागता-एक गृहपंक्ति के अन्तिम घर तक -ठाणं. अ. ६, सु. ५१४ जाकर वापिस आते हुए ही भिक्षाचर्या करना । U0 गवेषणा-३ सुद्ध आहारस्स गवेसणाए-परिभोगेसणाए य उवएसो- शुद्ध आहार की गवेषणा और उपभोग का उपदेश८६२. एसणा समिओ सज्जू, मामे अणियओ परे। ८६२. एषणा समिति के उपयोग में तत्पर लज्जावान् राघु गांवों अप्पमत्तो पमहि, पिंडवायं गवेसए । आदि में नियत निवास रहित होकर विचरण करे । अप्रमादी --उत्त. भ. ६, गा. १६ रहकर वह गृहस्थों से आहार आदि को गवेषणा करे । सुसणाओ नरचागं, तत्य ठवेज्ज भिक्खू अरमागं । भिक्षु शुद्ध एषणाओं को जानकर अपने आप को उनमें जापाए घासमेसेज्जा, रसगिन सिया भिक्खाए । स्थापित करे अर्थात् उनके अनुसार प्रवृत्ति करे तथा संयम यात्रा के लिए आहार की गवेषणा करे किन्तु रसों में मूच्छित न बने । पन्ताणि चेव सेरेमा, सीयपिपड पुराणकुम्मास । भिक्षु जीवन-यापन के लिए प्रायः रसहीन, भीतल आहार, अनु गुपकसं पुलागं वा, जवणट्टाए निसेवए मंथू ॥ पुराने उड़द के बाकले, सारहीन, रूखा आहार और बेर का चूर्ण -उत्त. अ. ६, गा. ११-१२ आदि पदार्थों का सेवन करे।। परिवाए न चिटुंग्णा, भिक्खू यत्तेसणं चरे। भिक्षु गृहस्थ के घर (पंक्ति) में खड़ा न रहे, गृहस्थ के द्वारा पतिकोण एसित्ता, मियं कालेग भपखए । दिए हुए आहार की एषणा करे, मुनि के वेष में एषणा कर यथा उत्त, अ. १, गा. ३२ समय परिमित आहार करे। भिक्खू मुयध्या तह विदुधम्मे, मृत के समान सर्वथा उपगान्त, आत्मधर्मदर्ती भिक्षु ग्राम गाम व गरं च अणुप्पविस्स। या नगर में प्रवेश करके एषणीय-अनैषणीय को जानता हा मे एसर्ण जाणमगेसणं च, अशन पान में आसक्त न हो। अण्णस्स पाणस अणाणुगिटे ।। --सूय. सु. १, अ. १३, गा. १७ कडेसु घासमेसेक्जा, विऊ बलेसणं घरे।। विद्वान् भिक्षु गृहस्थों द्वारा अपने लिए कृत आहार की अगि विष्पमुक्को य, ओमाणं परिवजए। याचना करे और प्रदत्त आहार का भोजन करे। वह आहार में -सूय. सु. १, अ.१, उ. ४, गा. ४ अनासक्त और रागद्वेष रहित होकर अन्य का अवमान (तिरस्कार) करने का वर्जन करे। संबुद्ध से महापण्णे, धोरे यत्तेसणं चरे। यह साधु महान् प्राज, अत्यन्त धीर और संवृत है, जो एसगासमिए णिच्च, वज्जयते अणेसम् ॥ गृहस्थ के द्वारा दिया हुआ एषणीय आहारादि पदार्थ ग्रहण करता —सूय. सु. १, अ.११. मा. १३ है तथा जो अनेषणीय आहारादि को वजित करता हुआ सदा एषणा समिति से युक्त रहता है। १ (क) दसा. ६.७, सु. ६१ (ख) अदुबिह गोयरगंतु-उत्त. अ.१०, गा. २५ । इस गाथा की टीका में गांचवे भेद के दो उपभेद कहे गप्रे हैं-बाह्य संबुकावर्त और आभ्यंतर शम्बुकावतं । इस प्रकार सात भेद हो जाते हैं और आठवाँ ऋजुगति कहा गया है। ये आठ गोचराग के प्रकार गिनाये गये है।
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
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