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सध८६२-८६५
सामुदानिको भिक्षा का विधान
चारित्राचार : एषणा समिति
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सिक्खऊण भिरखेसणसोहि संजयाण बुद्धाणं सगासे। तीर्थकर या साधुओं से भिक्षा की एषणा शुद्धि को जानकर तस्य भिक्खू सुम्पणिहिदिए, तिव्य लज्ज गुणवं विहरेज्जासि ॥ भिक्षु सभी इन्द्रियों से उपयुक्त होकर उत्कृष्ट संयम गुणों को
-दम. अ. ५, उ.२, गा, ५० धारण करके विचरे ।। लाभो ति ण मज्जेज्जा, मलामो ति ण सोएज्जा,
इच्छित आहारादि प्राप्त होने पर उसका मद न करे । यदि बई पि लाग मिहे ।
प्रात न हो तो खेद न करे । यदि अधिक मात्रा में प्राप्त हो तो -आ० सु० १,०२, उ०५. सु. ५६ (क) उसका संग्रह न करे।। सामुदाणिगी भिक्खा विहाणं
सामुदानिकी भिक्षा का विधान८६३. समुयाणं चरे भिक्खू, कुलं उच्चाययं सया।
५६३. भिक्षु सदा उच्च और नीच सभी कुलसमुदाय में भिक्षा नीय कुलमहम्म. ऊसकं नाभिधारए ॥
लेने जाए, नीचे कुल को छोड़कर उच्च कुल में न जाए । -दस. अ. ५, उ. २, गा. २५ अन्नायउँछ चरई विसुद्ध, जवणटुया समुयाणं च निन्न । जो जीवन-यापन के लिए विशुद्ध सामुदायिक अज्ञात-कुलों अलनुयं नो परिक्षेवएज्जा ल न बिकत्थयई स पुज्जो ॥ मे भिक्षाचर्या करता है, जो भिक्षा न मिलने पर खिन्न नहीं होता
- दस. अ. ६, उ. ३, गा. ४ है, मिलने पर श्लाघा नहीं करता है, वह पूज्य है। सनुयाण उछमेसिमा, जहासुसमागावय।
मुनि सूत्रानुसार अनिन्दित और उछ-अज्ञात कुलसमुदाय से साभालामम्मि संतुह, पिण्डवार्य घरे मुणी ।।
एषणा करे व लाभ और अलाभ' में सन्तुष्ट रहकर आहार
-उत्त. अ.३५, गा, १६ आदि की गवेषणा करे । एसणा कुसलो भिक्खू
एषणा कुशल भिक्षु८६४. जे संणिधाणसत्थस्स खेसणे,
८६४. जो सम्यग् संयम विधि का ज्ञाता है । वह भिक्षुसे भिक्खू कालण्णे,
काल-करणीयकृत्य के काल को जानने वाला, बलराणे,
बला-आत्मबल को जानने वाला, मातणे,
मात्रा--ग्राह्य वस्तु की मात्रा को जानने वाला, खेयाणे,
खेवज-जन्म-जरा-रोगादि से होने वाली खिग्रता को जानने
वाला, खणयवणे,
क्षणश-भिभाचर्या के अवसर को जानने वाला, विणयपणे,
विनयज-ज्ञान-दर्शन-नारित्र के स्वरूप को जानने वाला, ससमय-परसमयपणे,
स्वसमय-परसमयज्ञ---म्ब-पर सिद्धान्त को जानने वाला. भावणे,
भावज्ञ-भिक्षा देने वाले के मनोभाव को जानने वाला, परिगह अममायमाणे,
परिग्रह पर ममत्व नहीं करने वाला, उचित समय पर कालेष्ट्ठाई,
अनुष्ठान करने वाला और अधतिज्ञ (भोजन के प्रति संकल्प अपडिपणे दुहतो छित्तो णियाति ।
रहित) हो—बह दोनों बन्धनों (राम और द्वेष) को छेदन -आ.सु.१, अ., उ.३, सु. २१० करके संयम जीवन से जीता है। भिक्खुस्स गवेसणाविही
भिक्षु की गवेषणा विधि८६५. जमिण विरूबरूवे हि सस्थेहि लोगस्स कम्भसमारंभा कज्जति, ८६५. असंयमी पुरुष अनेक प्रकार के शस्त्रों से लोक के लिए तं जहा -
(अपने एवं दूसरों के लिए) कर्म समारम्भ (पचन-पाचन आदि प्रिया) करते हैं । जैसे
१
आ. सु. १, अ
२, उ. ५, मु.