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________________ ५४२] वरणानुयोग आहार-उद्गम-गवेषणा सत्र ८६५-८६८ अप्पणो से पुत्ताणं, धूयाणं. सुण्हाणं गातीणं, अपने लिए पुत्र, पुत्री, पुत्र-वधू, शानिजन, छाय, राजा, थातीणं, राईण, वासाण, दासीणं, कम्मकराणं, कम्मकरीणं दारा, दासी, कर्म करने वाले एवं कर्म करने वाली के लिए आदेसाए पुढो पहेणाए सामासाए) पातरासाए संणिहि- पाहुने आदि के लिए तथा विविध लोगों को देने के लिए एवं संणित्रयो कज्जति, इहमेगेसि माणवाणं भोयणाए। सायंकालीन एवं प्रातःकालीन भोजन के लिए इस प्रकार वे कुछ मनुष्यों के भोजन के लिए (दूध, दही आदि पदार्थों का संग्रह) और सन्निनय (चीनी, घृत आदि पदार्थों का गंग्रह) करते रहते हैं। समुट्टिते अणगारे आरिए आरियपणे आरियरंसी अयं संधी संयम-साधना में तत्पर आर्य, आयंप्रज्ञ और आर्यदर्शी त्ति अदक्खु। अनगार भिक्षा आदि प्रत्येक क्रिया उचित समय पर ही करता है। से जाइए, पाइआवए, न समणुजाणए। वह सदोष आहार को स्वयं ग्रहण न करे, दूसरों से ग्रहण न करवाए तथा ग्रहण करने वाले का अनुमोदन भी नहीं करे । सवामगंधं परिणाय णिरामगंधे परिध्वए। बह अनगार सब प्रकार के आमगर (अकल्पनीय आहार) -आ. मु. १, अ. २, उ. ५, सु. ८७-८५ का परिवर्जन करता हुआ निर्दोष आहार के लिए गमन करे। आहार उग्गम-गवेसणा--- आहार-उद्गम-गवेषणा८६६. उग्गम से य पुच्छिज्जा, कस्सट्ठा ? केण वा कडं?। ८६६. आहार किसके लिए बनाया है? किसने बनाया है? सोरुचा निस्संकियं सुद्ध, पडिगाहेज्ज संजए॥ संयत इस प्रकार आहार का उद्गम पूछे। दाता से प्रश्न का -दस. अ. ५, उ. १, गा. ७१ उत्तर सुनकर और निःशंकित होकर गुद्ध आहार ले । सयण-परिजण गिहे गमण विहि णिसेहो स्वजन-परिजन-गृह में जाने के विधि-निषेध८६७. मिक्खू य इछेज्जा नायविहिं एत्तए, ८६७. भिक्षु या भिक्षुणी यदि स्वजनों के घर जाना चाहे तोनो से कप्पड थेरे अणापुरिछत्ता नायविहि एसए। स्थविरों को पूछे बिना स्वजनों के घर जाना नहीं कल्पता है। कप्पह से मेरे आपुच्छित्ता नायविहिं एत्तए। स्थविरों को पूछकर स्वजनों के घर जाना कल्पता है। घेरा य से वियरेज्जा-एवं से कप्पइ नायविहिं एतए । स्थविर यदि आज्ञा दे तो स्वजनों के घर जाना कल्पता है। थेरा य से नो वियरेजा-एवं से नो कप्पद नायचिहि एसए। स्थविर यदि आज्ञा न दें तो स्वजनों के घर पर जाना नहीं कल्पता है। जे तत्थ थेरेहि अविष्णे नायविहि एइ, से संतरा छए वा, स्थविरों की आज्ञा के बिना यदि स्वजनों के घर जायें तो वे परिहारे वा। दीक्षाच्छेद या परिहार प्रायश्चित्त के पात्र होते हैं। नो से कप्पह अप्पसुयस्स अप्पागमस्स एगाणियस्स नायविहिं अल्पश्रुत और अल्पआगमश अकेले भिक्षु और अकेली भिक्षुणी को स्वजनों के घर जाना नहीं कल्पता है। किन्तु समुकम्पन से ने तत्व बहुस्सुए बहवाममे तेण सद्धि नायविहिं दाय में जो बहुश्रुत और बहु-आगमश भिक्षु या भिक्षुणी हो उनके एसए। –वव. ज. ६, सु. १-३ साथ स्वजनों के घर जाना कल्पता है । सजण गिहे आहार गहण विहि णिसेहो स्वजन के घर से आहार ग्रहण का विधि-निषेध८६८. तत्थ से पुवागमणेणं पुवाउत्ते चाउलोदणे पच्छाउते ८६८. गृहस्थ के घर में निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों के आगमन से पूर्व भिलिंगसूखे, करपद से चाउसोवणे पलिंगाहितए, नो से चावल रंधे हुए हो और दाल पीछे से रंधे तो चांवल लेना कप्पद मिलिगमूचे पङिगाहित्तए।। कल्पता है, किन्तु दाल लेना नहीं कल्पता है। तत्य से पुवागमणेणं पुवाउत्ते भिलिंगसूबे, पच्छाउत्ते घाउ- आगमन से पूर्व दाल रंधी हुई हो और चावल पीछे से रं) सोदणे, कप्पा से मिसिंगसूये परिगाहितए, नो से कप्पह तो दाल लेना कल्पता है किन्तु चावल लेना नहीं करपता है। पाउलोयणे परिगाहितए।
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
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