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________________ ४.) परगानोग. अपरिग्रह महावत की पांच भावना मंत्र ६७ तसिमामो पंच मावनाओ अति उस पंचम महावत की पांच भावनाएँ ये हैपढमा भाषणा-सोइंदियसंजमो प्रथम भावना-श्रोत्रेन्द्रिय संयम१. तत्थिमा पदमा मावणा-सोततो जीवे मगुग्णामणु- उसमें प्रथम भावना श्रोत्र (कान) से यह जोर मनोश तथा ण्णा सहाई सुगंति, मणुण्णामणुहि स हि गो लग्जेम्जा, अमनोज्ञ शादों को सुनता है, परन्तु वह उसमें असक्त न हो, राग जो र उजा, यो पिज्जा , णो युजरला गो अग्लोवव- भाव न करे, गूद न हो, मोहित न हो, अत्यन्त आसक्ति न करे, जोज्जा, पो बिगिषायमावज्जेज्जा। राग-द्वेष करके अपने आत्म-भाव को नष्ट न करे। केवली पूया-निग्गये गं मणुष्प्यामणण्यहि सहि सम्जमाणे केवली भगवान् ने कहा है -जो साधु मनोश-अमनोज शब्दों आव-विणिघायभावम्बमाणे संतिभेदा संतिषिमंगा संति- में आसक्त होता है-पावत्-राग द्वेष करता है वह शान्ति बलिपग्णतामओ धम्माओ मंसेग्मा। का चारित्र को भंग करता है, शान्ति रूप अपरिग्रह महाबत को भंग करता है, शान्ति रूप केवलीप्रशप्त धर्म से प्रष्ट हो जाता है। गाहा- सबका ण सोज, सदा सोत्तस्सियभागया। गाथार्थ-कर्ण-प्रवेश में आये हुए शब्दों का अवम न करना राग-दोसा उजेतस्थ, ते भिमलू परिवजए। शक्य नहीं है किन्तु उसके सुनने पर राम-नष की उत्पत्ति होती है, भिक्ष उसका परित्याग करे। सोततो जीको मगुणामणुण्णाईसहाई पुति पक्षमा मावणा। अतः श्रोत्र से जीव प्रिय और अप्रिय सभी प्रकार के शब्दों को सुनता है । यह प्रथम भावना है। नितिया भावणा-चक्युरिदियसंजमो द्वितीय भावना-परिणिय संयम२ अहावरा बोण्या मावणा-घतो मीयो मगुणामणुगाई अब दूसरी भावना पशु से जीय मनोश-अमनौर सभी प्रकार बाई पासति, मणपणामणुग्णाई कहिं णो सम्जेम्जा-जाव. के रूपों को देखता है, किन्तु साधु मनोश-अमनोश रूपों में गो विणिमासमावस्जेजना । आसक्त न हो-याषत्-राग-द्वेष करके अपने आरमभाव को नष्ट न करे। केवली ब्या-निगवे गं मणुग्णामणण्णाई सहि सज्जमाणे केवली भगवान् ने कहा है-जो निम्रन्थ मनोश-अमनोश जाव-संति केवलिपण्णत्ताओ धम्मामो भंसेज्जा। रूपों को देखकर आसक्त होता है-यावत्-शान्ति रूप-केवली प्ररूपित धर्म से भ्रष्ट हो जाता है। गाहा- सरका रूबमबई, वस्खूषिसयमागतं । गाथार्थ-नेत्रों के विषय बने हुए रूप को न देखना तो राग-बोसा उ मे सघ, ते मिक्खू परिवग्जए॥ शक्य नहीं है, वह दिख ही जाता है किन्तु उसके देखने पर जो राग-नुष उत्पन्न होता है भिक्षु उनका परित्याग करे अर्थात् उनमें राग-देष का भाव उत्पन्न न होने दे। असतो जीमो मणुषणामपुण्याई बाई पासति सि वोपचा अतः नेत्रों से जीव मनोज्ञ अमनोज्ञ रूपों को देखता है, यह भाषणा। दूसरी भावना है। ततिया भावणापाणिदिय संजमो तीसरी भावना-प्राणिनिय संयम३. अहाबरा सच्चा मावणा अब सीसरी भावना, घाणतो जीवो मण्णुणामणुग्णाई गंधाई अग्धाति मणण्णा- नासिका से जीव प्रिय और अप्रिय गन्धों को सूचता है, मणुण्यहि मधेहि जो सम्जेज्या-जाव-विपिघाय-मावग्जेमा किन्तु भिक्ष मनोज और अमनोश गन्ध पाकर सस्त न हो -यावत् राग द्वेष करके आत्मभाव का नाश न करे। केवली पा-ममुण्णाभणुहि गंधेहि सम्ममाने-जाव-संति केवली भगवान् ने कहा है जो निग्रन्थ मनोश या बमनोज चतिपण्णत्तानो धम्मामी असेक्वा । गंध पाकर आसक्त होता है-पान--वह शांतिरूम केवनि प्रकपित धर्म से भ्रष्ट हो जाता है।
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
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