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________________ सूत्र १४७ अपरिग्रह महावत की पांच भावना चारित्राचार - गाहा-सा गंधसघाउं. गासाविसमाग । गाथार्थ-ऐसा नहीं हो सकता कि मासिका - प्रदेश के राग-दोसा 3. सत्य, ते भिक्खु परिवज्जए॥ सानिध्य में आये हुए गन्ध के परमाणु पुद्गल सूपे न जाए, किन्तु उनको संघने पर जो उनमें राग-द्वेष समुत्पन्न होता है, भिशु उनका परित्याग करे। चानतोनी मणणामगुणाई गंधाइ अग्यायति ति सच्चा अतः नासिका से जीब मनोज-अमनोज्ञ सभी प्रकार की गन्धों मागी। को सूंघता है, यह तीसरी भावना है । चहरयाभावणा--जिपिदिय संजमो-- चौथी भायना-जिहन्द्रिय संघम४. महापरा त्या भाषणा-जिम्मातो जीवो मणुपणाम- अब चौथी भावना जिह्वा से जीव मनोश-अमनोग रसों का गुग्गाई रसाई असारेति मगुग्णामगुग्णाई रसेहिं णो आस्वादन कराता है, किन्तु भिजु को चाहिए कि वह मनोश अमसम्बना-जाव-पो विषिपातमावमा। नोज्ञ रसों में आसक्त न हो,-यावत् --राग-द्वेष करके अपने आत्मभाव का नाश न करे। बली या निगये णं मणुणामणुनहि रसेहिं सज्ज- केवली भगधान ने कहा है-जो निग्रंन्ध मनोश-अमनोज रसों माणे-जाव-संति केलिपग्माताओ धम्माओ मसेमा । को पाकर आसक्त होता है-यावत्-बह शान्तिरूप केबली प्ररूपित धर्म से भ्रष्ट हो जाता है। गाहा-- सक्का रसमणासान, जोहाविसयमागतं । गायाथ-ऐसा तो हो ही नहीं सकता फि जिहाप्रदेश पर __राग-दोसा उजे तत्थ, ते भिक्षु परिवग्जए ।। रस आए और वह उसका आस्वादन न करे किन्तु उन रसों के अति जो वष उत्पन्न होता है भिक्षु उसका परित्याग करे । माहातो कीवो मगुणामणुगाई रसाई असावेति ति घजत्था अतजिह्वा से जीव मनोज्ञ-अमनोश सभी प्रकार के रसों मावणा। का आस्वादन करता है, यह चौथी भावना है। पंचमा भावणा-फासिदिय संजमो पंचम भावना स्पर्शन्द्रिय संघमअहावर। पंचमा भावणा अब पांचवी भावना कासातो जीवो मगणामपणेहि फासेहि णो सम्जेज्ना-जाव- स्पशेन्द्रिय से जीव मनोज्ञ और अमनोज्ञ स्पर्शों का संवेदन को विणियातमावग्जेण्डा। (अनुभव) करता है किन्तु भिक्षु उन मनोजामनोश स्पर्शों में आसक्त न हो,-यावत्-राग-द्वेष करके अपने बारममाष का नाश न करे। केवली श-निग्येणं मणुगामधुणेहि फासेहि सन्जमाणे केवली भगवान ने कहा है-जो निन्थ मनोश-अमनोज जाव-संति केवलिपाणलामो धम्माओ भंसेजा। स्पशों को पाकर आसक्त होता है यावत् वह शांतिप्रिय केवलीप्ररूपित धर्म से भ्रष्ट हो जाता है। गाहा ग सफा ग संवेहेतु फासं विसयमागतं । गाथार्ष---स्पर्शेन्द्रिप के विषय प्रदेश में आए हुए स्पर्श का राग-दोसा र थ से भिवपरिमज्जए । संवेदन न करना किसी तरह संभव नहीं है अतः भिक्षु उन मनोज-अमनोज स्पर्थो को पाकर उनमें उसन होने वाले राग या द्वेष का परित्याग करता है। कासातो जोपो मणुज्यामणुष्णाई फामाई परिसंवेवेति ति अत. स्पर्शेन्द्रिय से जीव प्रिय-अप्रिय अनेक प्रकार के स्पों पंचमा मावणा। का सवेदन करे, यह पाचवी भावना है। समवायांग सूत्र में पंचम महाव्रत की पांच भावनाएं इस प्रकार हैं१.थोपेन्द्रिमरागोपरति, २. चक्षुरिन्द्रियरायोपरति, घ्राणन्द्रियरागोपरति, ४. रसनेन्द्रियरागोपरति, ५. स्पर्शन्द्रियरागोपरति । - सम. स. २५, ४.१ प्रश्नव्याकरण सूत्र में पांच भावनाएं आचारांग सूत्र की तरह ही हैं। -पण्ह सु०२. अ०५, सु. १३-१६
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
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