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वरणानुयोग
अपरिग्रह महावत को पारप को रुपमा
पूष ६४८-६४६
एताव साव महावए सम्म काएग फासिते पालिसे सीरिए इस प्रकार पंच भावनाओं से विशिष्ट तथा साधक द्वारा किट्टिते मट्टिते आणाए आराहिते यावि भवति। स्वीकृत परिग्रह-विरमण रूप पंचम महाव्रत का काया से सम्यक
स्पर्श कर उसका पालन करे, स्वीकृत महावत को पार लगाने, उसका कीर्तन करने तथा अन्त तक उसमें अवस्थित रहने पर
भगवदाजा के अनुरूप आराधक हो जाता है। पंचम भंते ! महत्वयं परिम्गहाभो मेरमणं ।
भगवन ! यह है-परिग्रह-विरमणरूप पंचम महाव्रत । -आ. सु. २, अ. १५, सु. ४८.७६१ अपरिगहमहब्वयस्स पारपोषमा
अपरिग्रह महानत को पादप की उपमा - ६४८. जो तो वीरवर बयण-विरति-पवित्यर-विहप्पकारो सम्मत ६४८. थी वीरवर-महावीर भगवान् के वचन–प्रदेश से की विसुद्धो मूलो।
गई परियह निवृत्ति के विस्तार से यह संवरबर-पादप अर्थात् अपरिग्रह नामक अन्तिम संवरद्वार बहुत प्रकार का है। सम्यग्
दर्शन इसका विशुद्ध-निर्दोष मूल है। घिति कन्दो।
धृति-चित्त की स्थिरता इसका कन्द है। विजय बेहो।
विनय हसकी वेविका-चारों ओर का परिकर है। मिग्मत-तिलोक्क-विपुल-जस-निविट-पीण-पवर-सुजात खंधो। तीनों लोकों में फैला हुआ विपुल यश इसका सघन महान
सुनिर्मित स्कन्ध (तना) है। पंचमहस्वय-विसाल सालो।
पांच महाव्रत इसकी विशाल शाखाएं हैं। भाषण तयंत
अनित्यता, अपारणता आदि भावनाएं इस संवर वृक्ष की
स्वधा है। माण-सुभोग-नाण-पल्लववरंकुरघरो।
धर्मध्यान, शुभयोग तथा ज्ञान रूपी पल्लवों के अंदरों को
यह धारण करने वाला है। बहुगुण कुमुमस सिद्धो।
बहुसंख्यक उत्तरगुण रूपी फूलों से यह समृद्ध है। सौल सुगंध
यह शील के सोरम से सम्पन्न है। अणहब फलो।
यह संबरवृक्ष अनामव कर्मास्रव के निरोध रूप फलों
वाला है। पुगो य भोक्खबर बीजसारो।
मोक्ष ही इसका बीजसार-मीजी है। भंवरगिरिसिहर-चूलिका इव मोक्खवर मुत्तिमनगरस सिहर- यह मेरु पर्वत के शिखर पर चूतिका के समान मोक्ष-कर्म भूओ संबरवरपादपो। .-पह. सु०२, १०५, सु०२ क्षय के निर्लोभता स्वरूप मार्ग का शिखर है।
इस प्रकार का अपरिग्रह रूप उत्तम संवर रूपी जो स है,
दह अन्तिम संसरदार है। अपरिगाह महस्वय-आराहगस्स अकप्पणिज्जाई दबाई-- अपरिग्रह महाव्रत आराधक के अकल्पनीय द्रव्य६४६. जस्य न कप्पा गमापर-नगर-खेड-कबड-महंब-वोणमुह- ६४६. ग्राम, आकर, नगर, खेड, कर्बट, मंडब, द्रोणमुख, पत्तन
पणाऽऽसमगयं च । किचि अप्पं वा, बढ़ा , अणुं वा, यूलं अथवा आश्रम में रहा हुआ कोई भी पदार्थ हो. चाहे वह अल्प बातम-थावरकायदबजायं मणसा वि परिघेत्तुं । मूल्य वाला हो या बहुमूल्य हो, प्रमाण में छोटा हो बधश बड़ा
हो, वह उसकाय-शंख आदि हो या स्थावरकाय-रत्न मादि हो, उस द्रव्य समूह को मन से भी ग्रहण करना नहीं कल्पता, अर्थात्
उसे ग्रहण करने की इच्छा करना भी योग्य नहीं है । महिरण-सुवण्य-क्षेस-रघु ।
चाँदी, सोना, क्षेत्र (खुली भूमि), वास्तु (मकान दुकान आदि) भी ग्रहण करना नहीं कल्पता ।