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________________ विकार-वर्धक माहार करने का निषेध चारित्राचार [४३३ न रासी-सास-मयक-पेसहय-गय-गबेलगं च । दासी, दास, भृत्य-नियत वृत्ति पाने वाला सेवक, प्रेष्यसंदेश ले जाने वाला सेवक, घोड़ा, हाथी, बैल आदि भी ग्रहण करना नहीं कल्पता। यान- रथ, गाड़ी और युग्य-डोली आदि, शयन और छत्र-छाता आदि भी ग्रहण करना नहीं कल्पता, न कमण्डलु, न न जाण-सुग्ग-सयगाइने छत्तक, न कुंजिया, न उवाणहा । जूता, न पेटण-वीयण-तालियंटका। न मोरपीछी, न वजनापंखा और तालवृन्त---ताड़ का पंखा ग्रहण करना कल्पता है। नयावि अय तज्य तंब-सीसफ-कंस-रयत-जातरूष-मणि-मुत्ता- लोहा, पु, तांबा, सीसा, कासा, चांदी, सोना. मणि और घार-पुरक-संख-वंत-मणि-सिंग-सेल काय-वरचेल-धम्म-पत्ताई. मोती का आधार सीपहम्पुट, शंख, उत्तम दांत, सींग, शैलमहरिहाई, परस्स अमोबवायलोम जणणाई परियोउं पाषाण, असम कांच, वस्त्र और चमड़ा और इनके बने हुए पात्र गुणवओ। भी ग्रहण करना नहीं कल्पता । ये सब मूल्यवान पदार्थ दूसरे के मन में ग्रहण करने की तीव्र आकांक्षा तथा लोभ उत्पन्न करते हैं, उन्हें खींचना, अपनी ओर झपटना बढ़ाना या जतन से रखना मूल-गुणादि से युक्त भिक्षु के लिए उचित नहीं है । म यावि पुष्क-फल-कंद-मूलावियाई, सण-सत्तरसाई, सध्य- इसी प्रकार पुष्प, फल, कन्द, मूल आदि तथा सनादि सग्रह धन्नाई तिहि वि जोगेहि परित्तु ओसह मेसज्ज मोयणट्टयाए प्रकार के धान्य ऐसे समस्त धान्यों को भी परिग्रहत्यागी साधु संजए। औषध, भेषज्य या भोजन के लिए त्रियोग मन, वचन, काम से मग न करे। प०--कि कारण? प्र०-नहीं ग्रहण करने का क्या कारण है? उ.-अपरिमित-पाण-दसणधरेहि सीलगुण-विगय-सव- स- अपरिभित-अनन्त ज्ञान और दर्शन के धारक, शील संजम-नायकेहि नित्ययरेहि समयजगज्जीव-पच्छले हि चित्त की शान्ति, गुण-अहिंसा आदि, विनय, तप और संयम तिलोयहिएहि जिणवारदेहि एस जोगी कंगमाणं के नायक, जगत् के समस्त प्राणियों पर वात्सल्य धारण करने बिहार बाले, त्रिलोक-पूजनीय, तीर्थकर जिनेन्द्र देवों ने अपने केवलज्ञान से देखा है कि ये पुष्प, फल आदि त्रस जीवों की योनि-उत्पत्ति स्थान है। न कप्पड खोणी-समुल्छ वो तेग बज्जति समणसीहा। योनि का अचछेद-विनाश करना योग्य नहीं है। इसी कारण भ्रमणसिंह- उत्तम मुनि पुष्प, फल आदि का परिवर्जन करते हैं। जंपि य ओवण-कुम्मास-गंज-तप्पण-संघ-मुग्जिय-पलल- और जो भी ओदन-कर, कुल्माष- थोडे उबाले उड़द तप सबकुलि-वेतिम-घरसरक-चुन-कोसग-पिंड-सिंह- आदि, गंज-एक प्रकार का भोज्य पदार्थ, तर्पण सत्तू, मधुरिणि-वट्ट-मोयग खीर-वहि-सप्पि-नवनीत तेल्ल-गुल- बोर आदि का चूर्ण- आटा, भूमी हुई धानी-साई, पलल तिल घर-मभडिय-मधु-मम्ज-मंस धज्जक-वाण-विधिमा- के फूलों पिष्ट सूप-दाल पष्कुली-तिलपपड़ी, देष्टिम- जलेबी, विकं पणीयं उबस्सए परघरे व राने न कप्पति, तंकि इमरती आदि. बरसरक नामक भोज्य बस्तु, चूर्णकोश-खार सन्निहि फाउं सुविहियार्थ। विशेष, गुरु आदि का पिण्ड. शिखरिणी-दही में शक्कर आदि --पहल सु० २. अ०५, मु. ३-४ मिलाकर बनाया गया भोज्य---श्रीखण्ड, बट्ट-बड़ा, मोदक लड्डू, दूध, दही, घी, मक्खन, तेल, खाजा, गुड़, खांड, मिश्री. मध, मद्य, मांस और अनेक प्रकार के व्यंजन - शाक, छाछ आदि यस्तुओं का उपाश्रय में या अन्य किसी के खर में अथवा अटवी में सुविहित-परिग्रहत्यागी, शोभन आचार बाले साधुओं को । संचय करना नहीं कल्पता है।
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
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