________________
४५४]
परणानुयोग
अपरिग्रही
पुत्र ६५०-६५३
अपरिग्रह महावत के आराधक-२
अपरिगही
अपरिग्रही६५७. आवंसी के आवंती लोयंति अपरिगहायती एएसु चैव अप- १५०. इस जगत में जितने अपरिग्रही हैं वे पदाथों (वस्तुओं) में रिग्गहावंति।
-आ.सु. १,अ.५, सु. १५७ (मूर्यान रखने और उनका संग्रह न करने के कारण) अपरि
अपरिग्गही समणस्स पउमोषमा
अपरिग्रही श्रमण को पद्म की उपमा ६५१. बोछिन्य सिणेहमप्पणो कुमुयं सारइयं व पाणियं । ६५१. जिस प्रकार शरद्-ऋतु का कुमुद (रक्त कमल) जस में से सम्बसिहजिए, समय गोयम ! मा पमायए॥ लिप्त नहीं होता, उसी प्रकार तू अपने स्नेह का पिछछेदन कर
निलिप्त बन । हे गौतम ! तू क्षण भर भी प्रमाद मत कर । सम्बे एगंतपंडिया सम्वत्थ समभावसाहमा -
सभी एकान्त पण्डित सर्वत्र समभाव के साधक होते हैं६५२. जहा अंतो तहा माहि. जहा बाहिं तहा अंतो ।
६५२. (यह देह) जैसा भीतर है, वैसा बाहर है, जैसा शहर है
वसा भीतर है। अंतो अंतो पूतिबेहतराणि पासति पुढो दि सताई।
इस शरीर के भीतर अशुद्धि मरी हुई है, साधक इसे देखें। पंडित पडिलेहाए।
देह से करते हुए अनेक अशुचि स्रोतों को भी देखें । इस प्रकार पंडित पुरुष शरीर की अशुचिता (तथा काम-विपाक) को भली
भाँति देखें। से मतिमं परिणाय मा य लाल पच्चाप्तो। मा तेसु वह मतिमान् साधक (उक्त विषय को) जानकर तथा त्याग तिरिच्छमप्याण भावासए ।
कर लार को न चाटे-वमन किये हुए भोगों को पुनः सेवन न -आ. सु. १, अ.२, उ.५, सु. १२ करे । अपने को तिर्यक मार्ग में (काम-भोग के बीच में अथवा
ज्ञान-धारित्र से विपरीत मार्ग में) न फंसाए । सम्वे वाला आसत्ता सध्ये पंडिया अणासत्ता
सभी बाल जीव आसक्त है, सभी पण्डित अनासक्त है६५३. आलाकमेव निकाममोणे, ।
६५३. जो साघु आघाकर्म आदि दोषदूषित आहार की कामना निकामसारी य विसण्णमेसी । करता है, जो निमन्त्रण पिंड आदि आहार की गवेषणा करता है, इस्मीसु ससे य पुढो यराले,
वह (पावस्थ आदि कुशीलों के) मार्ग की गवेषणा करता है जो परिग्गहं व पकुल्यमाणे ।। स्त्रियों के विलास आदि अलग-अलग हास्य में आसक्त होकर
परिग्रह का संचय करता है। बेशयुगिसे शिवयं करेति,
(परिग्रह अर्जन के निमित्त) प्राणियों के साथ जन्म-जन्मातर इतो चुते से बुहमट्टदुग्गं । तक वैर में एक होकर वह पाप कम का संचय करता है। वह तम्हातु मेधावि समिक्ख धम्म,
यहां से व्युत होकर दुःखप्रद स्थानों में जन्म लेता है। इसलिए बरे सुणी सम्बतो विष्पमुस्के॥ मेधावी मुनि धर्म की समीक्षा कर सब ओर से सर्वथा विमुक्त
होकर संयम की चर्या करे। मायं न कुना र जोषितट्ठी,
साधु इस लोक में चिरकाल सक जीने की इच्छा से आय असम्जमायो य परिक्वएमा। (म्योपार्जन या कर्मोपार्जन) न करे, तथा स्त्री-पुत्र आदि में जिसम्ममासी रविणीय गिविं,
अनासक्त रहकर संयम में पराक्रम करे । साधु पूर्वापर विचार हिसपिणतं वा ण कह करेजा ॥ करके कोई बात कहे । शब्दादि विषयों से आसक्ति हटा ले सया
-सूय. सु.., अ.10, गा.-१० हिसायुक्त कथा न कहे।