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________________ अपरिग्रह महाबत आराधन को प्रतिमा चारित्राचार २६ पंचम अपरिग्रह महानत अपरिग्रह महावत की आराधना-१ अपरिग्गहमहव्यय आराहण-पहण्णा अपरिग्रह महाव्रत आराधन की प्रतिज्ञा६४६. अहावरे पंचमे भंते ! महन्वए परिहाओ रमणं । ६४६. भरते ! इसके पश्चात् पांचवें महाव्रत में परिग्रह की विरति होती है। सम्वं भते! परिग्गडं पच्चरक्षामि-से गामे या गगरेषा भन्ते ! मैं सब प्रकार के परिग्रह का प्रत्याख्यान करता है। अरणे वा अपंगा बहं या अणुं वा घृतं वा वित्तमंतं वा जैसे कि-गाँव में, नगर में या अरण्य में, अल्प या बहत, सूक्ष्म मचित्तमंतं वा । या स्थूल, सबिन या अचित्त । (से व परिम्गहे चबिहे पण्णत्ते) तं बहा, (परिग्रह के चार प्रकार हैं यथा१. बवमो, २. सेतो, काममओ, ४. मावओ। (१) द्रव्य से, (२) क्षेत्र से, (३) काल से, (४) भाव से, १. सम्बो सववव हि (१) द्रव्य से सर्व द्रव्य सम्बन्धी २.बेतमो सम्बलोएहि, (२) क्षेत्र से सर्व लोक में ३.कासओ क्यिा वा राशे वा, (३) काल से दिन में या रात्रि में ४. मावभो अप्पाघे वा महाधे वा।) (४) भाव से अल्प मूल्य वाली वस्तु हो या बटुमूल्य वाली) मेव समं परिणाहं परिगण्हेज्जा, नेवन्नहि परिसगह परिगेहा- किसी भी परिग्रह का ग्रहण में स्वयं नहीं करूंगा, दूसरों से बेजा, परिगहं परिगरते वि अन्ने न समणुजाणेग्जा' परिग्रह ग्रहण नहीं कराऊँगा और परिग्रह ग्रहण करने वालों का माबजावाए तिविहं तिविहेणं मणेणं वायाए कारणं न अनुमोदन भी नहीं करूगा, यावज्जीवन के लिए, तीन करण तीन करेमि म कारवेमि करत पि अन्नं न समजाणामि । योग से--मन से, बचन से, काया से-न करूंगा, न कराऊँगा और करने वाले का अनुमोदन भी नहीं करूंगा। तस्स भन्ते । परिरकमामि नियमि गरिहामि अप्यागं भन्ते ! मैं अतीत के परिग्रह से निवृत्त होता है, उसकी बोसिरामि । निन्दा करता हूँ, गहीं करता हूँ और आत्मा से परिग्रह का व्युत्सर्ग करता हूँ। पंचमें मात! महावर उवट्रिओमि सम्बाओ परिग्गहामो भन्ते ! मैं पांचवें महावत में उपस्थित हुआ है। इसमें सर्व बेरमणं । -दस. अ. ४, सु. १५ परिग्रह की पिरति होती है। अपरिग्गहमहब्वयस्स पंच भावणाओ अपरिग्रह महाव्रत की पांच भावनाएँ६४७, महावरं पंचमं मन्ते । महम्वयं सम्बं परिगह पश्चापखामि । ६४७. इसके पश्चात् हे भगवन् ! मैं पांचवें महावत में सब से अस्प बा, मा , अणु वा, धूलं वा, चित्तमंत वा, प्रकार के परिग्रह का त्याग करता हूँ। मैं थोड़ा या बहुत सूक्ष्म अचित्तमंत वा, णेव सयं परिग्गडं गेण्हेज्जा, णेवणेणं परि- या स्थूल, सचित्त या अचित किसी भी प्रकार के परिग्रह को ग्गहं गेम्हानेमा, अजं वि परिगह गेहतं न समजाज्जा स्वयं ग्रहण नहीं करूंगा, न दूसरों से ग्रहण कराऊँगा और न जावज्जीवाए तिविह सिविहेण मणसा बपसा कायसा तस्स परिग्रह ग्रहण करने वालों का अनुमोदन करूंगा। इस प्रकार मैं मन्ते ! परिकमामि निवामि गरिहामि अप्पाणं बोसिरानि। यावज्जीवन तीन करण तीन योग से, मन से, वचन से, काया से, परिग्रह से निवृत्त होता हूँ। हे भगवन् ! उसका प्रतिक्रमण करता हूँ, उसकी निन्दा करता हूँ, गहीं करता हूँ, अपनी आत्मा से परिग्रह का त्याग करता हूँ। १ सूय. सु. २, अ० १, सु. ६५५ । २ घण-धन्न-पेसवग्गेसु, परिगरिबम्जणा । राब्बारंभपरिश्चाओ, निम्ममस सुदुक्करं । -उत्त० अ०१६, मा०३.
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
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