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वरणानुयोग
ब्रह्मवयं को नौ मस्तियां
सूत्र ६४४-६४५
बंभचेरस्स णय अगुत्तिओ -
ब्रह्मचर्य की नौ अगुप्तियां५४४. गव वभोर मगुप्तीमी पण्णत्ताओं, सं जहा
६४४. ब्रह्मचर्य की नौ अगुप्तियाँ या विराधनाएँ कही गई हैं। जैसेणो बिविलाई स्यणासगाई सेभित्ता भवति
जो ब्रह्मचारी एकान्त में शयन-आसन का सेवन नहीं करता, १. इत्योसंसत्ताई पसुसंसप्लाई पंजससाई।
(१) किन्तु स्त्रीसंसक्त, पशुसंसक्त और नपुंसकस सक्त स्थानों
का सेवन करता है। २. इत्थीण कह कहेता भवति ।
(२) जो ब्रह्मचारी स्त्रियों की कया करता है तथा स्त्रियों में
कथा करता है। ३. इस्विडाणाई सेवित्ता भवति ।
(8) जो ब्रह्मचारी स्त्रियों के बैठने-उठने के स्थानों का
सेवन करता है। ४. इत्थीणं इंबियाई मणोहराई मणोरमाई आलोसा (४) जो ब्रह्मचारी स्त्रियों के मनोहर और मनोरम इन्द्रियों मिनमाइता भवति ।
को देखता है और उनका चिन्तन करता है। ५. पणीपरसभोई भवति ।
(५) जो ब्रह्मचारी प्रणीत रस वाला भोजन करता है। ६. पाणभायणस्स अमायमाहारए सपा भवति ।
(६) जो ब्रह्मचारी सदा अधिक मात्रा में बाहार-धान
करता है। ७. पुम्वरय पुषकोलियं सरिता भवति ।
(७) जो ब्रह्मचारी पूर्वभुक्त भोगों और क्रीड़ाओं का स्मरण
करता है। ८. सहानुवाई वाणुवाई सिलोगाणुवाई भवति ।
(0) जो ब्रह्मचारी मनोश शब्दों को सुनने का, सुन्दर स्पों
को देखने का और कीति-प्रशंसा का अभिलाषी होता है। है. सायासोबरन यानि भवति ।'
६. जो ब्रह्मचारी सातावेदनीय-जनित सुख में प्रतिपर
ठाणं. अ., मु. ६६३ होता है। बंभचेरस्स गव गुत्तिो
ब्रह्मचर्य की नौ गुप्तियां६४५. णव अंमचेरगुतीओ पग्णताओ, तं जहा
६४५, ब्रह्मचर्य की नौ गुप्तियाँ (बा) कही गई हैं। जैसेविनिताई सपणासणाई सेवित्ता मति
प्रह्मचारी एकान्त में शयन और आसन करता है, १.णो इरिथसंसप्ताई पो पसुसंसत्ताई णो पंरगसंसप्ताई। (१) किन्तु स्त्रीसंसक्त, पशुसंसक्त और नपुंसक के संसर्ग
वाले स्थानों का सेवन नहीं करता है। २. जो इत्थी कहकहेला भवति ।
(२) ब्रह्मचारी स्त्रियों की कया नहीं करता है व स्त्रियों में
कथा नहीं करता है। ३. णो स्थिठाणाई सेविता प्रवति ।
(३) ब्रह्मचारी स्त्रियों के बैठने-उठने के स्थानों का सेवन
नहीं करता है। ४. गो इत्यामिवियाई मणोहराई मगोरमाई मालोइत्ता (४) ब्रह्मचारी स्त्रियों की मनोहर और मनोरम इन्द्रियों को निज्मादसा भवति ।
नहीं देखता है और चिन्तन भी नहीं करता है। ५. गो पणोतरसभोती भवति ।
(५) ब्रह्मचारी प्रणीत-रस-धृत-तेलबहुल भोजन नहीं
करता है। ६. को पागभोयणस्स अतिमातमाहारए सया प्रयसि । (६) ब्रह्मचारी सदा अधिक मात्रा में आहार-पानी नहीं करता है। ७. जो पुण्यरत पुग्मकीलियं सरेसा भवति ।
(७) ब्रह्मचारी सदा पूर्वकाल में भोगे हुए भोगों और स्त्री
क्रीड़ाओं का स्मरण नहीं करता है। ८. गो सहाणवाली गो स्वाणुवाती को सिलोगाणुवातो (क) मह्मचारी मनोश शब्दों को सुनने का, सुन्दर रूपों को मयति ।
देशाने का और कीर्ति-प्रशंसा का अभिलाषी नहीं होता है। ८. गो साहसीक्वंपरिबरे याधि प्रवति ।
(३) ब्रह्मचारी सातावेदनीय-जनित सुस में प्रतिबद्ध-आसक्त
-ठाणं. अ. सु.६६३ नहीं होता है। १ समासु०१॥