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________________ ६४२-६४३ पाँचवाँ भावना विकारवाईत आहार निषेध एवं पुण्य- पुरुषको लिय- विरसि-समितिजोगेणं भाविमो मगह इस प्रकार पूर्वर-पूर्वीवितविरति समिति के योग से अंतरावर-गाममे जितिए राति अनाःकरण वाला ब्रह्मचर्य में अनुरक्त पित्त वाता जितेन्द्रिय, साधु ब्रह्मचयं से गुप्त (सुरक्षित) होता है । पौषयी भावना विकारवर्धक आहार निषेध -र-ह-सप-नवनीयम पंचमा भावणा पणीयाहार विवज्जणया ६४३. पंचमहारथी-नि-विएस साह ६४३. स्वादिष्ट, परिष्ट एवं स्निग्ध (चिकनाई वाले) भोजन का त्यांनी संयमशील-सुखा दूध, दही, घी, मक्खन, तेल, गुड़, खाण्ड, मिसरी, मधु, मद्य, मांस, खाद्य – पकवान और विगय से रहित आहार करे । मज्ज-मंसखज्जक विगति-परिचतकयाहारे नितिनं, न सायसूपा हि न शयं । "सहा तजह से सामावा" नथ भवइ विग्भभो, न संसणा य धम्मस / एवं पीपाहार विरति समितिजोगेच भाविनंत रा आरविश्यामनिदिए भरते। २. ४६-१२ उपसंहारो एवमिगं संजरस वारं सम्यं संबधि होइ सुपणिहियं । हमे चाहि चरि विं आम मतिमया । एसो जोगो पेयभ्यो वितिमया अगासको अकलुसो अच्छिदो अपरिसावी असं किलिडो सुद्धो सदक्षिणमा । पारियाचार एवं च संरबार कासिवं पालियंसोहि तरियं किट्टिय जागाए अनुपालियं भव । [४२७ एवं नायमुनिना मगनमा पद्मवियं परुवियं सिद्धं सिद्धवर सासनमिनं आमवियं सुदेसिय पसरथं । सिमि । वह दकारक इन्द्रियों में उत्तेजना उत्पन्न करने वाला आहार न करे। दिन में बहुत बार न खाए और न प्रतिदिन लगातार खाए। न दाल और व्यंजन की अधिकता वाला और न प्रचुर भोजन करे। "साधु उतना ही हित-मित आहार करे जितना उसकी संयम यात्रा का निर्वाह करने के लिए आवश्यक हो ।" जिससे मन में विभ्रम चंचलता उत्पन्न न हो और धर्म (ब्रह्मचर्यव्रत) से व्युप्त न हो । इस प्रकार प्रणीत आहार की विरति रूप समिति के योग से भावित अन्तःकरण वाला, ब्रह्मचर्य की आराधना में अनुरक्त विश्वासा और मैथुन से विरत साधु नितेन्द्रिय और बहान सुरक्षित होता है । उपसंहार— इस प्रकार ब्रह्मचर्यव्रत रूप यह संवरद्वार सम्यक् प्रकार से संत और सुरक्षित होता है मन, वचन और काम न तीनों योगों से परिरक्षित इन (पूर्वोक्त) पाँच भावना रूप कारणों व आजीवन यह योग धैर्यवान् और मतिमान् मुनि को पालन करना चाहिए । से यह संवरद्वार आसव से रहित है और भावछिद्रों से रहित है। इससे कर्मों का मासव नहीं होता है। यह संक्लेश से रहित है, शुद्ध है और सभी तीर्थंकरों द्वारा अनुज्ञात है। इस प्रकार यह चौथा संवरद्वार विधिपूर्वक गंभीकृत पालित, अरित्याग से निर्दोष किया गया, पार किनारे तक पहुँचाया हुआ दूसरों को उपदिष्ट किया गया. आराधित और तीर्थंकर भगवान् की आशा के अनुसार अनु पानित होता है। ऐसा ज्ञात मुनि भगवान् (महावीर ) ने कहा है, युक्तिपूर्वक समझाया है। यह प्रसिद्ध जगद्विश्यात है, प्रमाणों से सिद्ध है । १.सु. २. ४. १२ यह स्थित सिद्धों बानों का ज्ञान है। सुर नर आदि की परिषद में उपविष्ट किया गया है और मंगलकारी है। ऐसा मैं कहता हूँ।
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
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