SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 679
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सूत्र ६६-१०१ निर्गन्यों के उपाश्रय में निर्गन्धियों के लिए निषिद्ध कार्य चारित्राचार : एषणा समिति [६४. निगंथरणं उबस्सए निग्गयोणं णिमिद्ध किवाई- निग्रन्थों के उपाश्रय में निययियों के लिए निषिद्ध काय-- १६. नो कप्पद निग्गयी निगथा उवस्मयंसि घिट्टित्तए MEE. निम्रयियों को निग्रन्थों से उपाथय में ठहरना-पावत्__-जात्र-ठागं वा ठाइत्तए । - कप्प. उ. ३. सु. २ बड़े या बैठे कायोत्सर्ग करना नहीं कल्पता है । णिसीहियाए णिमित किच्चाई स्वाध्यायभूमि में निषिद्ध कार्य१००. जे सत्य दुवाया था, तिबग्गा बा, पउवग्गा वा, पंचवम्मा १००. यदि स्वाध्यायभूमि में दो-दो तीन-सीन चार-चार या वा, अभिसंधारेज्जा मिसीहियं गमणाए, पाँच-पाँच के समूह में एकत्रित होकर (साधु) जाना चाहे तो, ते णो अण्णमण्णस्स काय आलिगेज्ज वा, विलिगेग्ज वा, वहां एक-दूसरे के शरीर का परस्पर आलिंगन न करें, न बुवेज्ज वा, दंतेहिं वा, अच्छिवेज वा विग्छिवेज्ज वा, ही एक दूसरे से चिपटे, न वे परस्पर चम्बन करें, न ही दांतों -आ. सु. २, अ. ६, सु. ६४३ और नखों से एक दूसरे का छदन करें। शय्येषणा विधि-निषेध-३ अतंलिक्ख उवस्सयस्स विहि-णिसेहो अन्तरिक्ष उपाश्रय के विधि-निषेध-- १०१. मिक्खू वा, भिक्यूणी वा से जर्ज पुण उबस्सयं जागेज्जा, १.१. भिक्षु या भिक्षुणी यदि ऐने उपाश्रय को जाने, तं जहा खंसि वा-जाय हम्मियसलसि था, अण्णतरसि था जो कि स्तम्भ पर बना है-यावत् : प्रासाद के तल पर तहप्पगारंसि अंतलिपखजायंसि गणरथ आगाढागाहिं कार- बना हुआ है, अश्या अन्य भी इसी प्रकार के अन्तरिक्षजात पहिणो ठाणं वा, सेज्जं वा. णिमीहियं वा चेतेन । स्थान है, तो किसी अत्यंत गढ कारण के बिना उक्त प्रचार के उपाश्रय में स्थान शय्या और स्वाध्याय न करे। से य आहच्य तिते सिया, कदाचित कारणवश ऐसे उपराव में ठहरना पड़े तो णो सत्य सोतोगवियडेण वा, उसिमोदगवियडेण वा, वहाँ प्रासुक शीतल जल से ग उष्ण जल से हाथ, पैर, हत्याणि वा, पाबाणि था. अच्छीणि वा, वंताणि वा मुहं आंख, दौत, या मुंह एक बार या बार-बार न धोए, वा. उच्छलेज्ज वा, पधोएज्ज वा, गो तस्य उसई पकरेग्जा, तं जहा-उच्चारं बा, पासवणं वहाँ पर किसी भी प्रकार का व्युन्सर्जन न करे, पथा उच्चार वा, खेलं वा, सिंघाणं वा, यंतं या, पित्तंबा, पूतिया, सोणियं (मन) प्रस्त्रवण (मूश्री मुख का मन, नाक का मैल बमन, पित्त, वा, अण्णतरं वा सरीरावयवं । मवाद, रक्त तथा शरीर के अन्य किसी भी अवयव के मन का स्याग वहां न करें। केवली यूया-आयाणमेयं । क्योंकि केवलज्ञानी प्रभु ने इसे कर्मों के आने का कारण बताया है। से तस्य ऊसट्ठ पकरेभाणे पयलेज्ज बा, पबज्ज बा, से वह वहां पर मलोत्सर्ग आदि करता हुआ फिसल जाए या तत्य पयलमागे बा, पवउमाणे वा, ऋत्य वा-ज्ञाय-सीस या गिर पड़े। पर से फिसलने वा गिरने पर उसके हाय-यावतअण्णतरं वा कार्यसि ईदियजातं खूसेज्ज या पाणाणि या शिर तथा शरीर के किसी भी भाग में या अन्य किसी इन्द्रिय -जाव-सत्ताणि वा जमिहणेज्म वा-जाव अवरोधज्ज था। पर चोट लग सकती है, तथा प्राणी--यावत् सत्व भी घायल हो सकते हैं--यावत्-प्राणरहित हो सकते हैं। अह भिक्खूणं पुख्योवविटा एस पडण्या-जाब-एस उवएसे, जे अत: भगवान् ने पहले से ही साधु के लिये ऐसी प्रतिज्ञा तहम्पमारे उबस्सए अंतलिक्खजाते णो ठाण वा सेज वा बताई है--पावत्- जयदेश दिया है कि इस प्रकार के अतरिक्ष मिसीहियं वा तेज्जा। जान उपाश्रय में स्था, गया एवं स्वाध्याय न करे। -आ. सु. २, अ.२ ,१, सु. ४१६
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy