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________________ सूत्र ३०५ भव और संबर का विवेक चरित्राचार २०७ 4 ... . 1 1 AmAhurt . ranARTA.. अहो वि सत्ताण विट्टणं च, जो अधोलोक में प्राणियों के विवतं (जन्म-मरण) को जो आसवं जाणति संवरं ।। जानता है, जो आश्वव और संवर को जानता है, जो दुःख और तुक्खं च जो जापति निग्जरंच, निर्जरा को जानता है, वही क्रिपावाद का प्रतिपादन कर सो मासितुमरिहति किरियवाद । सकता है। -सूय. सु. १. अ. १२, गा. २१ जे आसया ते परित्सवा, जे परिस्सवा ते आसया । जो आश्रव (कर्मबन्ध) के स्थान हैं, वे ही परिनत्र (संबर) कर्म निर्जरा के स्थान बन जाते हैं, (इस प्रकार) जो परिव (मंवर) है, वे आस्रव हो जाते हैं। जे अणासवा ते अपरिस्सवा, जे अपरिस्सवा से अणासवा । जो अनाम्रय, व्रत विशेष हैं, वे भी (अशुभ अध्यवसाय वाले के लिए ; अपरिस्रव-कर्म के कारण हो जाते हैं.) इसी प्रकार जो अपरिखव-पाप के कारण हैं, वे भी (कदाचित् ) अनास्रव होते हैं। एते य पए संप्रमाणे लोग घ आणाए अभिसमेच्चा पुढो इन पदों (भंगों-विकल्पों) को सम्यकप्रकार से समझने पवेदितं । बाला तीर्थकरों द्वारा प्रतिपादित लोक (जीव समूह) को अज्ञा (आगमवाणी) के अनुसार सम्यक् प्रकार से जानकर आनवों का सेवन न करें। चिट्ठ कूरेहि कम्मेहि चिटु परिविचिति । जो व्यक्ति अत्यन्त गाढ अध्यवसायवश ऋर कर्मों में प्रवृत्त अघि8 फरेहि कम्मेहि णो चिट्ठ परिविधिद्वति । होता है, वह अत्यन्त प्रगाढ़ वेदना वाले स्थान में पैदा होता है। मा व्यवसायबाला होकर, कर कर्मों में प्रवृत्त नहीं होता, बह प्रगाढ़ वेदना याले स्थान में उत्पन्न नहीं होता है। एगे वदति अनुवा वि पाणी, गाणी वचंति अदुवा वि एगे।' यह बात चौदह पूर्वो के धारक भुतकेवली आदि कहते हैं, .... आ. सु. १, अ. ४, उ. २, सु. १३४-१५ या केवलज्ञानी भी कहते है। जो यह बात केवलज्ञानी कहते हैं वही श्रुतवली भी कहते है। प०-जीवे गंमते ? या समियं एयति वेति अलति फंबद प्र०-भगवन् ! क्या जीव सदा समित (मर्यादित) रूप में घट्ट खुम्मद वीरति तं तं भावं परिणमति ? कापता है, विविध रूप में कांपता है, चलता है (एक स्थान से दुसरे स्थान जाता है) स्पन्दन क्रिया करता है (थोड़ा या धीमा चलता है) घट्टित होता (सर्व दिशाओं में जाता है घूमता है.) क्षुब्ध (चंचल) होता है, उदीरित (प्रबलरूप से प्रेरित) होता है या करता है, और उन-उन भावों में परिणत होता है ? ३०-हंता, मंडियपुत्ता ! जीवे गं सया समितं एयति--जाव- उ०—हाँ मण्डितपुत्र! जीव सदा समित (परिमित) रूप तंतं भावं परिणति । से काँपता है,-यावत् उन-उन भावों में परिणत होता है। ५०–जाव च गं मंसे ! से जोवे सया समित-जाव-परिण- प्र-भगवन् ! जब तक जीव समित-परिमित रूप से मति सायं च तस्स जीवास मंते अतकिरिया कापता है,-याव-उन-उन भावों में परिणत (परिवर्तित) भवति? होता है, तब तक क्या उस जीव की अन्तिम (मरण) समय में अन्तक्रिया (मुक्ति) होती है? उ०—जो इण8 सम8। ____मण्डितपुत्र ! यह अर्थ (नात) समर्थ (शक्य) नहीं है, (क्योंकि जीव जब तक क्रियायुक्त है, तब तक अन्तक्रिया क्रिया का अन्तरूप मुक्ति नहीं हो सकती।) १ (क) सु० १३४ और १३५ के बीच का सुबांश तपावार के अन्तर्गत स्वाध्याय तप के पांचवें भेद धर्मकथा में देखिए । (ख) संबर तथा सामायिक के विशेष प्रसंग हेतु भम. श. १, उ.६, सूत्र २१-२४ धर्मकथानुयोग भाग १ खंड २, पृ. ३१६-३२१ में देखें।
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
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