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________________ २०८] वरणानुयोग आधव और संबर का विवेक सूत्र ५०-से केण? भंते ! एवं बच्चा जावं च गं से जोवे प्र--भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि सया समितं एमति-जाब-अंते तागं तस्स जीवस्स जब तक जीव समितरूप से सदा कांपता है,-पावद-उन-उन अंतकिरिया न भवति? भावों में परिणत होता है, तब तक उसकी अन्तिम समय में अन्तक्रिया नहीं होती है ? उ०—मंजियपुत्ता जावं पणं से जीने सया समित-जात्र- उ०-हे मण्डितपुत्र ! जीव जब तक सदा समित रूप से परिणति तायं च णं से जीवे मारंभात सारभति कांपता है-यावद-उन-ऊर भावों में परिणत होता है, तब समारमति, तक वह (जीव) आरम्भ करता है, सरम्भ में रहता है, समारम्भ करता है, आरम्मे वट्टति, सारम्भे पट्टति, समारम्मे बटुति, आरम्भ में रहता (बर्तता) है, संरम्भ में रहता (वर्तता) है, और समारम्भ में रहता (वर्तता) है । आरम्भमागे, सारम्ममाणे, समारम्भमागे आरम्भ, सारम्भ और समारम्भ करता हुआ तथा आरम्भ आरम्भे वट्टमाने, सारम्भे वट्टमाणे, समारम्भ वट्टमाणे, में, संरम्भ में, और समारम्भ में, प्रवर्तमान जीवबहणं पाणार्गाव-सत्ताणं दुक्खायणताए सोयावजताए बहुत-से प्राणों,-पावत-सत्वों को दुःख पहुंचाने में, शोक जुरावगताए तिप्पावणताए पिट्टायणताए परितावण- कराने में, झुराने (विलाप कराने) में, रुलाने अथवा आँसू गिरताए वट्टति, बाने में, पिटवाने में, (थकान-हैरान कराने में,) और परिताप (पीड़ा) देने (संतप्त करने) में प्रवृत्त होता है । से सेट्ठग मंख्यिपुत्ता ! एवं बुञ्चति–जावं चणं इसलिए हे मण्डितपुत्र ! इसी कारण से ऐसा कहा जाता है से जीवे सया समित एपति-जाव परिणति तावं च कि जब तक जीव सदा समित रूप से कम्पित होता है, यावत्णं तस्स जीवस्स अंते अंतकिरिया न भवति । उन-उन भावों में परिणत होता है, तब तक वह जीव, अन्तिम समय (मरणकाल) में अन्तत्रिया नहीं कर सकता। प०-जीवे गं भते ! सया समियं नो एयति-जाव-नो तं तं प्रा-भगवन् ! जीव सदैव (शाश्वतरूप से) समितरूप से भावं परिणमति ? ही कम्पित नहीं होता,-यावत्--उन-उन भावों में परिणत नहीं होता? उ०-हंता, मंस्यिपुत्ता! जीवे गं सपा समियं-जाव-नो उ-हाँ, मण्डितपुत्र ! जीव सदा के लिए समितरूप से परिणमति। ही कम्पित नहीं होता, यावत् - उन-उन भावों में परिणत नहीं होता। (अर्थात्-जीव एक दिन क्रियारहित हो सकता है।) प०-जाव च णं मंते ! से जीवे नो एयति-जाब-नो तं तं प्रा-भगवन् ! जब वह जीव सदा के लिए समितरूप से भावं परिणमति तावं च गं तरस जीवस्स अंते अंत- कम्पित नहीं होता-यावस्-उन-उन भावों में परिणत नहीं किरिया भवति? होता, तब क्या उस जीव की अन्तिम समय में अन्तक्रिया (मुक्ति) नहीं हो जाती ? १०-हंता,-जाव-भवति । उ.-हाँ, (मण्डितपुत्र !) ऐसे-पावत्--जीव को अन्तिम समय में अन्तत्रिया (मुक्ति) हो जाती है । १०-से फेणटुं भंते !-जाब-मति ? प्र-भगवन् ! ऐसा किस कारण से कहा है कि ऐसे जीव की-यावत्-अन्तत्रिया मुक्ति हो जाती है ? उ०-मंजियपुत्ता ! जावं वर्ग से जीवे सया समियं गो उ०-मण्डितपुत्र [ जब वह जीव सदा के लिए) समित एयति-जाव जो परिणमइ तावं में से ओवे नो रुप से (भी) कम्पित नहीं होता -यावत्-उन-उन भावों में आरमति, मो सारभति, नो समारभति, नो आरम्भे परिणत नहीं होता, तब वह जी व आरम्भनहीं करता, संरम्भ
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
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