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एथ दो समासा भवति तं जहा
१. सम्पुरिसे प, २. कम्मधारय ।
० तं न नज्जइ कमरेगं समासेणं मणसि ? किं तप्पुरिसेगं कि कम्मधारएवं ?
म तपुरिसेणं मनसि तो ना एवं मणाहिअह कम्पधारणं मणलि तो विसेसओ माहि
धम्मे य से परसे से पएसे धम्मे ।
अधम्मे य से पसे से पएने अधम्मे ।
आगासे य से एसे से पएने आगासे ।
जीवे य से पएसे से पएसे नो जीवे -
खं य से परसे से परसे नो खंधे ।
एवं वयंतं संपयं समभिरूडं एवंभूओ मन
म एगह जैसे वि मे अवत्थू ।
प्रदेश दृष्टान्त
कसिगं परिष्वं निरवसे पनि मे
से लं पएस विट्ठते । से तं नयप्पनाणं ।
- अणु० सु० ४७६
धर्म-प्रज्ञापना
प्र० – क्यों ?
उ०- यहाँ दो समास होते हैं, यथा(१) तत्पुरुष, (२) कर्मधारय ।
२
प्र० - तुम किस समास से कहते हो - यह जाना नहीं जाता -तत्पुरुष समास कहते हो या कर्मधारय समास कहते हो ? यदि तत्पुरुष समास कहते हो तो इस प्रकार न कहो । कर्मधारय समास कहते हो तो विशेष रूप से कहो, अर्थात् स्पष्ट कहो।
धर्मास्तिकाय का जो प्रदेश है वह धर्मास्तिकाय ही है, अर्थात् धर्मास्तिकाय से अभिन्न है।
अधर्मास्तिकाय का जो प्रदेश है वह अभ्रमस्तिकाय ही है अर्थात अधर्मास्तिकाय से अभिन्न है।
आकाशा स्विकाय का जो प्रदेश है वह आकाशास्तिकाय ही है अर्थात् आकाश
है।
(धर्मास्तिकाय मस्त और आकाशात गों एक-एक प्रव्यात्मक हैं. अतः इस प्रकार कहना ही उचित है) जीवास्तिकाय का जो प्रदेश है अर्थात् एक जीव जीवास्तिकाय नहीं है ।
( जीवास्तिकाय अनन्त जीवात्मक है अतः एक जीव जीवास्तिकाय नहीं हो सकता )
图图
स्कन्ध का जो (एक) प्रदेश है वह स्वन्ध नहीं है ।
( स्कन्ध जघन्य दो प्रदेशात्मक— यावत् अनन्त प्रदेशात्मक
होते हैं, अत: एक प्रदेश स्कन्ध नही है | )
इस प्रकार कहते हुए समभिनय वाले को एवंभूतनय वाला कहता है
तुम जिन-जिन द्रव्यों के सम्बन्ध में कहते हो उन सबको पूर्ण, निरवशेष एक के ग्रह से ग्रहण किये जाने वालों को द्रव्य मानता हूँ । 'मैं देश को भी अवस्तु मानता हूँ और प्रदेश को भी वस्तु मानता हूँ।'
प्रदेश दृष्टान्त समाप्त