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हामि वा रोग हा केवलिया धम्माओ सेज्जा ।
णं विवित्तमा रहि इति अम्मररस रक्खट्टा, आलयं तु
विदित शयनासन सेवन का फल
तहानो थी - पण्गसंसप्ताई सपणासणाई सेवित्ता वह से नि । - उत्त. अ.१६, सु. २
ण व निलेवए ॥
- उत्त. अ. १६, गा. ३ सयणाऽऽसणं । विवज्जियं ॥
- दस. अ. ८, गा. ५१ स्त्री और पशु से रहित हो । घासणावा
अन पगडं लयणं, मएज्ज चारभूमिसम्पन्न इस्थी पसु
विविलासमन्तिया नरागस परिसे विसं पशुओ बाहिरियो ।
जहा बहस से न मुसमानं वसही पसस्था एमेव इमीनियम न म्यारिस्मो निवासी ॥ -उत्त. अ. ३२, गा. १२-१३ मनोहरं चिराहर मल्ल-धूषण वासियं । सामानि पश्य ॥
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इन्द्रियाणि उ भिक्खुस्स तारिसम्मि उवस्सए । दुक्कराई निव:रेजं कामगनिवडणे ||
- उत्त. अ. ३५, मा. ४-५ कामं तु देवीहि विभूसियाहि नचाइमा बोमजं तिगुता । सहा वि एतहियं ति नन्चा, विवितवासी मुविणं पसत्य ॥
मोear मिकविस वि माणवस्त संसार मोहस्स व्यिस्त धम्मे । नेयारिसंयुत्तरमत्थि लोए, जहित्थिओ बालमनोहराओ ॥ १२. १६-१७
१. विवित्तरायणासण सेवणफल४६.
विविसरायचासनया में बन्ने ?
उ० वितिभासवाए मं परिगृति नगरमुझे जीने विविसाहारे चरिसे एगन्तरए य णं ममापन्ने अमिनिम
-- उत. अ. २६, सु. ३३
बारिषाचार
अथवा दीर्घकालिक रोग और आतंक होता है, अथवा केवल कथित धर्म से भ्रष्ट हो जाता है, इसलिए जो स्त्री, पशु और नपुंसक से आनी नमन और आसन का सेवन नहीं करता, वह निर्ग्रन्थ है ।
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हाच की रक्षा के लिए मुनि से आलय में रहे जो एकान्त, अनाकीर्ण और स्त्रियों से रहित हो ।
मुनि दूसरों के लिए बने हुए गृह, शयन और आसन का सेवन करे वह गृह मल-मूत्रविसर्जन की भूमि से पुक्त तथा
जो विविक्त शय्या और आसन से नियन्त्रित होते हैं, जो कर खाते हैं और जितेन्द्रिय होते हैं, उनके चित्त को राग- शत्रु वैसे ही आक्रान्त नहीं कर सकता है जैसे औषध से पराजित रोग देह को ।
जैसे बिल्ली की बस्ती के पास चूहों का रहना अच्छा नहीं होता, उसी प्रकार स्त्रियों की बस्ती के पास ब्रह्मवारी का रहना अच्छा नहीं होता ।
जो स्थान मनोहर चित्रों से ही नाम और धूप से आकीर्ण, सुवासित, किवाड़ सहित, श्वेत चन्दवा से युक्त हो जैसे स्थान की मन से भी प्रार्थना (अभिलाषा) न करे।
काम - राग को बढ़ाने वाले उपाश्रय में इन्द्रियों का निग्रह करना ( उन पर नियन्त्रण पाना) भिक्षु के लिए दुष्कर होता है ।
यह ठीक है कि तीन गुप्तियों से गुप्त मुनियों को विभूषित देवियां भी विचलित नहीं कर सकतीं, फिर भी भगवान् ने एकान्त हित की दृष्टि से उनके विविक्त वास को प्रशस्त कहा है ।
मोल चाहने वाले संसारभर एवं धर्म में स्थित मनुष्य के लिए लोक में और कोई वस्तु ऐसी दुस्तर नहीं है, जंसी दुस्तर मम को हरने वाली सुकुमार है। १. विविक्त शयनासन सेवन का फल --
१ चित्तमिति न निजलाए, नारि वा सुअलंकियं । भक्खरं पिव दद्दू, दिट्ठी परिसमाहरे ॥
४६६० प्र०—भन्ते ! विविक्त-शयनासन के सेवन से जीव क्या फल प्राप्त करता है ?
उ०- विविक्त शयनासन के सेवन से वह चारित्र की रक्षा को प्राप्त होता है। चारित्र की सुरक्षा करने वाला जीव पौष्टिक आहार का वर्णन करने वाला दृढ चरित्र वाला, एकांत में रत, अन्तःकरण से मोक्ष- साधना में लगा हुआ, आठ प्रकार के कर्मों की गांठ को तोड़ देता है ।
- दस. अ. गा. ५४