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________________ ३२४] घरणानुयोग क्स बाय समाधि स्थानों के नरम मूत्र ४६३.४६५ जे भिक्खू सोचा, नच्या निसम्म, संजमबहले, संघरबहसे, जिन्हें सुनकर, जिनके अर्थ का निश्चय कर, भिक्षु संयम, समाहिबहुले, गुत्ते, गुत्तिचिए, गुत्तबम्भयारी सया अध्पमते संघर और समाधि का पुनः-पुन: अभ्यास करे। मन, वाणी और बिहरेजा। शरीर का गोपन करे, इन्द्रियों को उनके विषयों से बचाए, ब्रह्मचर्य को सुरक्षाओं से सुरक्षित रख्ने और सदा अचमत्त होकर विहार करे। १०-कपरे खतु ते परेहि भगवन्तेहिं बस यामचेरसमाहि- प्र. स्थविर भगवान् ने वे कौन से ब्रह्मचर्य-समाधि के ठाणा पन्नता, जे मिश्खू सोच्चा नच्चा, निसम्म, दस स्थान बतलाये हैं, जिन्हें सुनकर, जिनके अर्थ का निश्चय संजमबहुसे, संवरबहले, समाहिबहुले, गुसे, गुत्तिचिए, कर, भिक्षु संयम, संवर और समाधि का पुन: पुन: अभ्यास करे । गुसबम्भयारी सया अप्पमते विहरेज्जा? मन, वाणी और शरीर का गोपन करे, इन्द्रियों को उनके विषयों से बनाये, ब्रह्मचर्य को सुरक्षाओं से सुरक्षित रखें और सदा अप्रमत्त होकर विहार करे ? उ.-इमे खलु ते थेरेहिं भगवन्तेहि दस बम्भचेरसमाहिठाणा उ०---स्थविर भगवान् ने ब्रह्मचर्य समाधि के दस स्थान पन्नता, जे भिषयू सोच्चा, नच्चा, निसम्म संबमबहले. बतलाये हैं, जिन्हें सुनकर अर्थ का निश्चय कर, भिक्षु संयम. संबरबहले, समाहिबहले, गुस्से, गुत्तिम्बिए, गुत्तबम्म-संबर और समात्रि का पुन:-पुनः अभ्यास करे। मन, वाणी और यारी सया अप्पमत्ते बिहरेजति । शरीर का भोपन करे। इन्द्रियों को उनके विषयों से बचाये, -उत्त. ब. १६, सु. १ ब्रह्मचर्य को दस सुरक्षाओं से सुरक्षित रखे और सदा अप्रमत्त होकर विहार करे । वे इस प्रकार हैं -- बस धम्मचेरसमाहिठाणाणं णामाई दस ब्रह्मचर्य समाधि स्थानों के नाम-- ४६५.१. आलो थोजणाइण्णो, २. पीकलाम मणोरमा। ४६४. (१) स्त्रियों से आकीर्ण आलय, (२) मनोरम स्त्री-कथा, ३. संपवो चेव नारीम, ४. तासि इन्दियवरिसगं ॥ (३) स्त्रियों का परिचय, (४) उनकी इन्द्रियों को देखना, ५. कुइयं सदयं मीयं, (५) उनके कूजन, रोदन, गीत और हास्य मुक्त शब्दों को सुनना, ६. भुत्तासियाणि य । (६) उनके भुक्त भोगों को याद करना, ४. पणीय असपाणं च ६. भइमायं पाण-मोयणं ।। (७) प्रणीत पान भोजन, (८) मात्रा से अधिक पान भोजन, ६. गतभूसणमिट्ठच, . (E) शरीर को सजाने की इच्छा और १०. काममोगा य सुज्ञया । रस्सत्तगवेसिस्स, विसं ताल- (१०) दुर्जय काम-भोग के दस आत्म-गवेषी मनुष्य के उ जहा। -उत्स. अ. १६, गा. १३-१५ लिए तालपुट विष के समान हैं। विवित्तसपणासणसेवणं विविक्त-शयनासन सेवन - ४६५. "विविताई सयणासणाई सेविज्जा, से निग्गये" नो इत्यी- ४६५. जो एकान्त शयन और आसन का सेवन करता है, वह पसु-पण्डगसंससाई सपणासगावं सेवित्ता हवा से निग्गंथे। निग्रन्थ है। निग्रंथ स्त्री, पशु और नपुंसक से आकीर्ण मायन और आसन का सेवन नहीं करता। प०-तं कमिति ? प्र.--यह क्यों ? उ.-आयरियाह-निग्गंधस्स खा इत्थी-पसु-पण्डगसंसत्ताई उ ऐसा पूछने पर आचार्य कहते हैं-स्त्री, पशु और सपणासगाई सेवमाणस्स अम्मयारिस्स बम्मचेरे संका नपुंसक से आकोणं शयन और आसन का सेवन करने वाले था, कंखा था, वितिगिच्छा वा समुप्पज्जिज्जा, ब्रह्मचारी को ब्रह्मचर्य (के विषय) में अंका, कांक्षा या विवि कित्सा उत्पन्न होती है. भेयं वा लमेजा, समायं वा पाणिज्जा, अथवा ब्रह्मचर्य का विनाश होता है, अघया उन्माव पैदा होता है।
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
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