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________________ सूत्र ८३४-८३८ अहितकारो भाषा विवेक चारित्राचार [५३१ जे य वाणं पसंसंति, वहमिच्छति पाणिणं । जो दान (सवित्त पदार्थों के आरम्भ से जन्य वस्तुओं के जे यणं पडिसेहति, वित्तिच्छेयं करेंति ते ॥ दान) की प्रशंसा करते हैं वे प्राणिवध की इच्छा करते हैं, जो दान का निषेध करते हैं, वे अनेक जीवों को वृत्ति का छेदन (जीविका भंग) करते हैं। वजओ वि से पभासंति, अस्थि वा नत्यि वा पुणो । साधु उक्त (सचिन पदार्थों के आरम्भ में जन्य वस्तुओं के) अयं रयस्स हेचचाणं, णिवाणं पाउणति है। दान में पुष्य होता है या नहीं होता है, ये दोनों बाों नहीं कहते -सूग. सु. १. अ. ११. गा. १७-२१ हैं। इस प्रकार कर्मों के आगमन (आस्त्रव) को त्याग कर वे साधु निर्वाण-मोक्ष को प्राप्त करते हैं । अहियगारिणी भासा विवेगो अहितकारी भाषा विवेक - ५३५. अपुच्छिओ न भासेम्जा, भासमाणस्स अंतरा। ८३५. संयमी साधक बिना पूर्ण उत्तर न दे, दुनरों के बोलने के पिट्टिमंस न खाएज्जा, मायामोसं विवज्जए॥ बीच में बात काट कर न बोले, पीठ पीछे किसी की निन्दा न करे हा बोलने में मागामार असत्य को बिलकुल न आने दे। अप्पसियं जेण सिया, आसु कुप्पेज्ज वा परो। जिस भाण के बोलने से दूसरे को अविश्वास पैदा हो अथवा सम्वसो तं न भासेज्जा, भास अहिणणामिणिं ।। दूसरे जन ऋद्ध हो जायें, जिससे किसी का अहित होता हो ऐसी भाषा साधु न बोले। विटु' मियं असंदिसंपरिपुण्णं वियं जियं । आत्मार्थी साधक, जिस वस्तु को जैसी देखी हो वैसी ही अयं पिरमविर्ग, मासं निसिर अत्तव्वं । परिमित, संदेहरहित, पूर्ण, स्पष्ट एवं अनुभवयुक्त वाणी में बोले । यह वाणी भी वाचालता एवं परदुःखकारी भाव से रहित होनी चाहिये । आयारपण्णत्तिधरं. दिट्टिवायमहिज्जगं । आचार प्रज्ञप्ति को धारण करने वाला तथा दृष्टिवाद को बइविक्खलियं गच्चा, नतं उबहसे मुणी ॥ पढ़ने वाला मुनि भी यदि प्रमादव बोलने में स्खलित हो जाए –रस. अ. ८, गा, ४६-४६ तो यह जानकर मुनि उपहास न करे। साहविसए भासायिवेगो साधु के सम्बन्ध में भाषा विवेक८३६. बर्वे इमे असाहू. लोए बुच्चंति साहुणो। ८३६. ये अनेक असाधु जन-साधारण में साधु कहलाते है । मुनि न लवे असाहू साटुंति, साहुं साहुं ति आलवे ।। असाधु को साधु न बाहे. जो साधु हो उसी को साधु कहे। नाणसणसंपन्न, संजमे य तवे रयं । ज्ञान और दर्शन से सम्पन्न, संयम और तप में रत-इस एवं गुणसमाउत्त, संजय साहुमालवे ॥ प्रकार गुण-समायुक्त संयमी को ही साधु कहे । --दस. अ. ७, गा. ४८-४६ संखडी आइसु भासा दिवेगो संखडि आदि के सम्बन्ध में भाषा विवेक८३७. तहेव संखजि नच्चा. किच्चं कर्ज ति नो वए। ८३७. (इसी प्रकार) दयातु साधु संत्रडी (जीमनवार) और तेणगे या वि बम त्ति, सुतित्थे ति य आवगा ॥ कृत्य-मृतभोज को जानकर-ये करणीय हैं, चोर मारने योग्य है, और नदी अच्छी तरह से तरने योग्य अथवा अच्छे पाट वाली है-इस प्रकार कहे। संखडि संखडि बया, पणियटुंति तेणगं । (प्रयोजनवश कहना हो तो) संखड़ी को संखड़ी. चोर को बहुसमाणि तित्थाणि, आवगाणं वियागरे । पणितार्थ (धन के लिए जीवन की बाजी लगाने वाला) और -दस. अ. ७, गा. ३६-३७ ।। 'नदी के घाट प्रायः सम है"-इस प्रकार कहा जा सकता है। गईस भासा विवेगो नदियों के सम्बन्ध में भाषा-विवेक५३८. तहा नईओ पुण्णाओ, कायतिज ति नो वए। ८३८. तथा नदिया जल से भरी हुई हैं, शरीर से तिरकर पार नावाहि तारिमाओ ति, पाणिपेजज सि नो सए। करने योग्य हैं, नौका के द्वारा पार करने योग्य हैं और तट पर बैठे हुए प्राणी उनका जल पी सकते है-इस प्रकार न कहे।
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
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