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परगानुयोग
औषधियों के सम्बन्ध में सावध भाषा का निषेध
सूत्र ३१-८३४
ओसहिसु सावज भासा णिसेहो
औषधियों के सम्बन्ध में सावध भाषा का निषेध५३१. मे भिक्खू वा मिक्लूणी वा बहुसंभूताभो मोसहीए पहाए ६३१. माधु या साध्वी बहुत मात्रा में पैदा हुई ओषधियों (मेहे,
तहा वि ताओ जो एवं बदेज्जा-तं जहा-''पत्रका ति या, बापत आदि के लहलहाते पौधों) को देखकर यों न कहे, जैसे णीतिया ति वा, छबीया ति घा, लाइमा ति वा, मज्जिमा कि-ये पक गई है, वा ये अभी कच्ची या हरी हैं, ये छवि ति वा. रहखज्जा ति वा।" एतप्पगारं भासं मावज्ज (फली) वाली है, ये अब काटने योग्य हैं, वे भूनने या सेकने -जाव-भूतोवधातिय अभिकख णो मामेरमा ।।
मानज्जा
योग्य है. इनमें बहुत-सी खाने योग्य हैं; आ विवड़ा बनाकर - आ. सु. २, अ. ४, उ.२. स. ५४७ पाने योग्य हैं। इस प्रकार की सावद्य यावत-जीवोपघातिनी
भाषा जानकर न वोलें। सद्दाइसु सावज्ज भासा णिलेहो
शब्दादि के सम्बन्ध में सावध भाषा का निषेध८३२. से भिखू वा भिक्खूणी वा जहा वेगतियाई सद्दाई सुणेज्जा ८३२. साधु या साध्वी यद्यपि कई शब्दों को सुनते हैं, तथापि
तहा वि ताई णो एवं वदेजा-तं जहा—''सुसद्दे तिवा, उनके विषय में (राग-द्वेष युक्त भाव से) यों न कहे, जैसे किदुमति वा।" एतप्पगारं भासं साचज्ज-जाव भूतोबधातियं यह मांगलिक शब्द है. या यह अमांगलिक शब्द है। इस प्रकार अभिकल णो मासेम्जा ।
की नावद्य -यावत-जीवोपघातक भाषा जानकर न बोले । -आ. मु.२.अ.४.उ. २, स्.५४९
विधि-निषेध-कल्प-३
वत्त वा अवत्तब्धा य भासा
कहने योग्य और नहीं कहने योग्य भाषा८३३. चण्हं खलु भासाणं, परिसंखाय पण्णवं । ८३३. प्रज्ञावान साधु (या माध्वी) (मत्या आदि) चारों ही दोण्हं तु विणयं सिक्खे दोन भासेज्ज सस्वसो॥ 'भाषाओं को सभी प्रकार से जानकर (दो उनम) भाषाओं का
शुद्ध प्रयोग (विनय) करना सीखे और (शेष) दो (अधम) भाषाओं
को सर्वथा न बोते। जा य सच्चा अवत्तव्चा, सच्चामोसा य जा मुसा ।
तथा जो भाषा सत्य है, किन्तु (सावध या हिंसाजनक होने जाप बुद्धहिपाइण्णा, न त मासेज्ज पन्नयं ॥ रो) अवक्तव्य (बोलने योग्य नहीं) है, जो सत्या-मृषा (मिश्च) है,
-दस. अ.७, गा. १-२ तथा मृषा है एवं जो (मावद्य) असत्यामृषा (ब्बबहार भाषा) है,
(किन्तु) तीर्थंकरदेवों (बुद्धा) के द्वारा अनाचीर्ण है उसे भी
प्रज्ञावान साधु न बोले । दाणविसाए भासा विवेगो
दान सम्बन्धी भाषा-विवेक८२४. तहागिरं समारंभ अस्थि पुण्णं ति णो वदे ।
८३४. (सचित्त अन्न या जल देने पर पुण्य होता है या नहीं) ऐसे अहवा गस्थि पुष्णं ति, एवमेयं महाभयं ॥
प्रश्न को सुनकर उत्तर देते हुए पृष्य होता ही है, ऐसा श्रमण न कहे, अथवा पुष्प होता ही नहीं है), ऐमा कहना भी श्रमण के
लिए महाभवदायक है। दाणटुयाए जे पाणा, हम्मति तस-यावरा।
क्योंकि सचित्त अन या जल देने में जो वस और स्थावर तेमि सारपसणट्टाए, तम्हा अस्थि त्ति को वए ।
प्राणी मारे जाते हैं, अतः उनकी रक्षा के लिए पूण्य होता ही है,
ऐमा भी श्रमण न कहे। जेसि त उवकति, मण्ण-पाणं तहाविह।
जिन प्राणियों को सचित्त अन्न-पानी दिया जा रहा है उनके तेसि सामंसराय ति, तम्हा गस्थितिणी व ॥
लाभ में अन्तराय न हो इसलिए पुण्य होता ही नहीं है, यह भी
साधु न कहे। १ तहोसहीओ एक्कामओ नीलियाओ छनी इय। लाइमा भग्जिमाओ ति पिखजति नो वए ।।