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________________ सूत्र ६६-६८ धर्माणित व्यवहार धर्म-प्रशापना [४ २. के महच्चे परिई समुषकसेन्जा, तए ण से परिद समु- (२) कोई धनी पुरुष किसी दीन को व्यापार के हेतु आर्थिक क्किट्ठ समाणे पच्छा पुरं च णं विउलभोगसमितिसममा- सहयोग दे एवं कुछ समय पश्चात् वह दीन व्यक्ति धनी और अर्थ गते यावि बिहरेग्जा, तए णं से महच्चे अन्नया फयाइ महयोगी धनी पुरुष दीन हो जाता है-उस समय धनी बने हुए वरिष्दीहए समाणे तस्स दरिइस अंतिए हव्वमागच्छेगा, उस व्यक्ति में यदि वह आर्थिक सहयोग की अपेक्षा करे और उसे तए णं से वरि तस्स भट्टिस्स सस्वस्समनि इलयमाणे (जो अब दीन हो गया है। सर्वस्त्र भी अर्पण कर दे, तब भी वह तेणावि तस्स बुष्ठियारं भवइ ।। उसका प्रत्युपकार नहीं कर सकता है। अहे णं से त मट्टि केलिपन्नत्ते घम्मे आघाइत्ता-जाव-- -यदि वह उसे केवलीप्रज्ञप्न धर्म कहं यावत-उसे धर्म ठावदत्ता भवति, तेणामेव तस्स भट्टिस्स सुपडियार भबइ। में स्थिर करे तो वह उसका प्रत्युपकार करने में समर्थ होता है । ३. केइ सहारुवस्स समणस्स वा माहणस्स या अंतिए एगमवि (३) कोई पुरुष धर्माचार्य रो एक वचन सुनकर बोधि लाभ आपरियं धम्मियं सुवरणं सोचा निसम्म कालमासे कालं करता है और यथासमय देह त्यागकर वह देवलोक में उत्पन्न होता किच्चा अन्नगरेसु देवलोएसु देवताए उपबन्ने, तएणं से है. यदि वह दिव्य शक्ति से अपने उस धर्माचार्य को दुर्भिक्षग्रस्त देवे तं धम्मायरियं बुभिक्खातो वा देसातो सुभिवं देस प्रदेश से सुभिक्ष प्रदेश में, पथ विस्मृत होने पर गहन विपिन से साहरेज्जा, ताराओ वा णिकतारं करेग्जा, घोहकालि- वसति में ले जाकर रख दे, अथवा रोग-ग्रस्त को रोग-मुक्त कर एणं वा रोगरतकेण अभिभुतं समा बिमोएज्जा, तेणावि तथापि वह धर्माचार्य का प्रत्युपकार नहीं कर सकता है। तस्स धम्मायरियस्स दुष्पडियारं भवद । अहे णं से तं धम्मारियं केवलि-पन्नताओ धम्माओ भट्ट -यदि वह कदाचित धर्म विमुख होते हुए अपने धर्माचार्य समाणं भुज्जो वि केवलिपन्नते मे आघवइत्ता - जाव-- को धर्म कहे-याव-धर्म में स्थिर कर दे तो उनका प्रत्युपकार ठावदत्ता भवति, तेणामेव तस्स धम्मायरियस्त सुष्पडियार करने में समर्थ होता है । भयड़। -ठाणं. अ. ३, उ. १. सु. १४३ धम्मजिओ ववहारो धाजित व्यवहार--- ६७. धम्मज्जियं च ववहार, बुहायरिये सया । ६७. जो व्यबहार धर्म से अजित हुआ है, जिसका तत्वज्ञ आचार्यों तमापरन्तो मवहार, गरहं नाभिगच्छई ।। ने सदा आचरण किया है, उस व्यवहार का आचरण करता हुआ - उत्त. अ. १, गा.४२ मुनि कहीं भी नहीं को प्राप्त नहीं होता। चज चाउम्विहा धम्मिया अधम्मिया परिसा चार-चार प्रकार के धार्मिक और अधार्मिक पुरुष६८. सारि पुरिसजाया पण्णता, सं जहा ६८. बार जाति के पुरुष कहे गये है। जैसे - १. रुवं नाममेगे जहइ, नो धम्म (१) कोई रूप (साधुवेष) को छोड़ देता है, पर धर्म नहीं छोड़ता है, २. धम्मं नाममेगे जहइ, नो रूवं, (२) कोई धर्म को छोड़ देता है, पर रूप को नहीं छोड़ता है, ३. एगे हवं वि जहइ, धम्म वि जहर, (३) बोई रूप भी छोड़ देता है और धर्म को भी छोड़ देता है, ४. एगे नो रूवं जहइ, नो धम्म जहद । (४) कोई न रूप को ही छोड़ता है और न धर्म को ही छोड़ता है। चसारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा-- . (पुनः) चार जाति के पुरुष कहे गये हैं। जैसे - १. धम्मं नाममेगे जहइ, नो गणसंठिई, (१) कोई धर्म को छोड़ देता है, पर गण की संस्थिति (मर्यादा) नहीं छोड़ता। २. गणसठिई नागमेने जहह, नो धम्म, (३) कोई गण की मर्यादा को छोड़ देता है, पर धर्म को नहीं छोड़ता है। ३. एगे गणसंठिई वि जहइ, धम्म वि जहइ, (३) कोई गण की मर्यादा भी छोड़ देता है, और धर्म भी छोड़ देता है। ४. एगे नो गणसंठिई जहरू, नो धम्म जहा । (४) कोई न गण की मर्यादा ही छोड़ता है और न धर्म ही छोड़ता है ।
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
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