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परगानुयोग
अविनीत और सुविनीत के आचरण का प्रभाव
सूत्र १३६
मे आयरिपउवमायाणं, सुस्तसावपर्णकरा।
जो मुनि आचार्य और उपाध्याय की शुश्रूषा और आज्ञालेलि मिक्खा पवाति, जलसित्ता इस पापया ।। पालन करते हैं उनकी शिक्षा उसी प्रकार बढ़ती है, जैसे जल से
-दस. अ. ६, उ.२, गा. ५-१२ सीचे हुए वृक्ष। अविणीतस्स-विणीतस्स य आयरण-पभावो
अविनीत और सुविनीत के आचरण का प्रभाव१३६. मरणटर परदा बा, सिप्पा उणियाणि । १३६.जो गृही अपने या दुसरों के लिए, लौकिका उपभोग के
गिहिणो उवनोगट्ठा, इहलोगस्स कारणा ।। निमित्त शिल्प और नैपुण्य सीखते हैंजेग बंधं वह धोरं, परियावं च दावणं ।
वे पुरुष ललितेन्द्रिय होते हुए भी शिक्षा-काल में (शिक्षक के सिंपखमागा नियरि, दुसा ते दिविधा । द्वा) पीर पन्ध, वध और दारुण परिताप को प्राप्त होते हैं। ते वि त गुरु' पूर्वति, तस्स सिप्पस्स कारणा।
फिर भी वे उस शिल्प के लिए उस गुरु की पूजा करते हैं समकाति नमसंति, तुट्टा निद्देसवत्तिगो।। और सन्तुष्ट होकर उसकी आज्ञा का पालन करते हैं। कि पुण जे सुयग्गाही, अणतहियकामए ।
जो आगम-शान को पाने में तत्पर और अनन्तहित (मोक्ष) आपरियाज बए भिव, सम्हा तं नाइवसए ।। का इच्छुक है उसका फिर वह्ना ही क्या । इसलिए आचार्य जो
कहे भिक्षु उसका उल्लंघन न करे। नीयं सेवं गई ठाणं, नोयं च आसणाणि च । ___ भिक्षु (आचार्य से) नीची शैव्या करे, नीची गति करे, नीचे नीयं पाए वंदेम्जा, नीयं कुज्जा य अंजलि ॥ खमा रहे, नीचा आसन करे, और नीचा होकर अन्जलि करे
हाथ जोड़े। संघट्टरता काएग, तहा उहिणामवि ।
अपनी काया से तथा उपकरणों से एवं किसी दूसरे प्रकार खमेह अवराह मे, बएज्जन पुणो ति य॥ से आचार्य का स्पर्श हो जाने पर शिष्य इस प्रकार कहे--"आप
-दस.अ. ६, उ. २, गा. १३-१८ मेरा अपराध क्षमा करें, मैं फिर ऐसा नहीं करूगा ।" (मालवते लवते वा, न निसजाए पहिस्सुणे ।
(बुद्धिमान् शिष्य गुम के एक बार बुलाने पर या बार-बार मोसूर्ग आसणं धीरो, सुस्साए पडिस्सुणे ॥') बुलाने पर कभी भी बैठा न रहै, किन्तु आसन को छोड़कर
--दस. ब. ६, उ. २, गा. २० का टिपण शुश्रूषा के साथ उनके वचन को स्वीकार करे।) मिवती अविणीयस्स, संपत्ती पिणियरस य। ___ "अविनीत के विपत्ति और विनीत के सम्पति होती है"--ये जस्सेयं बुहो नायं, सिक्खं से अभिगच्छद ॥ दोनों जिसे ज्ञात है, वही शिक्षा को प्राप्त होता है।
...दस. अ. ९, उ. २, गा. २१ अगासपा धूलवया, कुसोला,
आज्ञा को न मानने वाले और अंध-अंट बोलने वाले कुशील मिचं पि चई पकरेंति सोसा। शिष्य कोमल स्वभाव वाले गुरु को भी क्रोधी बना देते हैं। पित्ताण्या लहु वस्खोषवेया,
चित्त के अनुसार चलने वाले और पटुता से कार्य को सम्पन्न पसायए के दुरासयं पि॥ करने वाले शिष्य, दुराशय (शीघ्र ही कुपित होने वाले) गुरु को
-उत्त. अ. १, गा. १३ भी प्रसन्न कर लेते हैं। जे विग्गहीए अनायनासो,
जो साधक कलहकारी है, अन्याययुक्त (न्याय-विरुद्ध) बोलता न से समे होति अमंझपत्ते। है, वह (रामपयुक्त होने के कारण) सम-मध्यस्थ नहीं हो मोबायकारी य हिरोमणे य,
सकता, वह कलहरहित भी नहीं होता। परन्तु सुसाधु उपपातएगंतविट्ठी म अमाइसवे ॥ कारी (गुरु सानिध्य में रहकर-उनके निर्देशानुसार चलने वाला)
या उपायकारी (सूत्रोपदेशानुसार उपाय—प्रवृत्ति करने वाला) होता है, वह अनाचार सेवन करते गुरु आदि से लज्जित होता है, जीवादि तत्वों में उसकी (दृष्टि श्रद्धा) स्पष्ट या निश्चित होती है, तथा वह माया-रहित व्यवहार करता है।
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यह गाथा--दम. अ. ६, उ. २, गा.१६ के बाद टिप्पण में हैं।