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सूत्र १३३-१३५
वाइमा संगहिया चेव, water जहा हंसा,
अह सारहो विचिन्ते मिसे
"मत्तपणे य" पोसिया पक्क मन्ति
विसोदिसि ॥
खलुकेहि अप्पा मे
हारिसा मम सोसाउ, महिला व
अभिनय-विनय सहवं१३४. या मददगार
अविनीत और विनीत का स्वरूप
तारिसा गलिगा। परिविन्द तवं ॥ —उत्त. अ. २७, गा. ३-१६
मिसवती पुण जे गुरूणं,
समागम ।
अवसोयई ।
विसुणे नरे साहस होणपेसणं । अधिमे बिगए मोविए
असं विभागो न हु तस्स मोपलो
तरि ते ओहमिणं गुरुत्तरं,
मुरथधम्मा विषयसि कांबिया
वित्त कम्मं मुसमं गय ॥
-दस. अ. ६, उ. २, गा. २२-२३
अविणीय सुविणीय लक्स थाई१३५. हे अविणीपप्पा, उवयमा या गया । श्रीसंति दुहमेहंता, अभिगमुट्ठिया
॥
सहेव सुविणोयप्पा उवषमा या गया। पोतिमेहता, पिता महायसा ॥
लहेब विशोष लोि नरनारिओ । कोहिमेत छाया से विनिदिय दसरा असम्भवहि य। युगादि बुविसाए परिगया । सहेव सुविणी, लोगंसि नरनारिओ । संसि सुहमेहता, पित्ता महापसा ॥ तब अविनीयध्या देवा जश्खा य गुजागा । कोहिमेता आणि "I समाजवा पति सुताइति महायता ॥
विनय ज्ञानादार
भक्त-पान से पोषित किया, बन गए हैं, जैसे पंख आने कर जाते है-दूर उड़ जाते हैं।
(आचार्य सोचते हैं) मैंने उन्हें पढ़ाया, संगृहीत ( दीक्षित ) किया किन्तु कुछ योग्य बनने पर ये वैसे ही पर हम विभिन्न दिशाओं में प्रक्रमण
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कुशिष्यों द्वारा खिन्न होकर सारथि (आचार्य) सोचते हैंइन दुष्ट शिष्यों से मुझे क्या ? इनके संसगं से मेरी आत्मा अवसन्न व्याकुल होती है।
जैसे गलिगर्दभ (आलसी और निकम्मे गधे होते हैं, वैसे ही ये मेरे है। ऐसा सोचकराना ने निर्द
शिष्यों को छोड़कर दृढ़ तपश्चरण ( उस बाह्याभ्यन्तर तपोमार्ग ) स्वीकार किया।
अविनीत और विनीत का स्वरूप-
१३४. जो नर चण्ड है, जिसे बुद्धि और ऋद्धि का गर्व है, जो पिशुन है, जो साहसिक है, जो गुरु की आज्ञा का यथासमय पालन नहीं करता, जो अदृष्ट (अज्ञात) धर्मा है, जो विनय में निपुण नहीं है, जो अभी है, उसे मोक्ष प्राप्त नहीं होता।
और जो गुरु के आज्ञाकारी हैं, जो गीतार्थ है, जो विनय में कोविद हैं, वे इस दुस्तर संसार-समुद्र को तैरकर कर्मों का क्षय कर उत्तम गति को प्राप्त होते हैं।
अविनीत सुविनत के लक्षण
१२५. जो औपबा (सवारी के काम आने वाले) घोड़े और हावी होते हैं, वे सेवाकाल में दूध का अनुभव करते हुए
देखे जाते हैं ।
जोबा घोड़े और हाथी सुविनीत होते हैं, वे ऋद्धि और महान् यथ को पाकर सुख का अनुभव करते हुए देखे जाते हैं।
विनीत होते हैं,
लोक में जो पुरुष और स्त्री या इन्द्रिय-किस दण्ड और मात्र से जर्जर भवभ्य वचनों के द्वारा तिरस्कृत करुण परवश भूख और प्यास से पीड़ित होकर दुःख का अनुभव करते हुए से जाते हैं।
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लोक में जो पुरुष या स्त्री सुविनीत होते हैं, वे ऋद्धि बोर महान गश को पाकर सुख का अनुभव करते हुए देखे जाते हैं । जो देव यक्ष और गुहा (भवनवासी देव) अविनीत होते हैं, वे सेवाकाल में दुःख का अनुभव करते हुए देखे जाते हैं ।
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जो देव, यक्ष और गुलक सुविनीत होते हैं, वे ऋद्धि और महान् यश को पाकर सुख का अनुभव करते हुए देखे जाते हैं ।