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________________ १. चरणानुयोग अविनीत की उपमाएं सलुंके जो जोएड, विहम्माणो किलिमई । असमाहिं च एक, तोत्तो मसे मज्जाई । एग उसइ पुच्छमि, एणं विन्धभिक्खणं । एगो भंजद समिलं, एगो उपहाटुओ ।। एगो पा पासेणं, निवेसह निविजई। उपकुड फिकई, सदे बालगवी वए। माई मुण पर्म, कुढे गच्छइ पडिप्पहं । मयलक्खेण चिई, वेगेण य पहावई !! जो खलुक (दुष्ट) बलों को जोतता है, वह उन्हें मारता हुआ क्लेश पाता है, असमाधि का अनुभव करता है और अन्ततः उसका चाबुक भी टूट जाता है। वह क्षुब्ध हुमा वाहक किसी को पूछ काट देता है. ती किसी को बार-बार वींधता है। और उन बैलों में से कोई एक समिला--जुए की कील को तोड़ देता है, तो दूसरा उन्मार्ग पर चल पड़ता है। कोई मार्ग के एक ओर पार्श्व (बगल) में गिर पड़ता है कोई बैठ जाता है, कोई लेट जाता है। कोई कूदता है, कोई उछलता है, तो कोई पाठ बालगनी- तरुण गाय के पीछे भाग जाता है। कोई धूतं बैल शिर को निढाल बनाकर भूमि पर गिर जाता है। कोई क्रोधित होकर प्रतिपय-उन्मार्ग में चला जाता है। कोई मृतका-सा पड़ा रहता है, तो कोई वेग से दौड़ने लगता है। कोई छिन्नाल-दुष्ट बल राम को छिन्न-भिन्न कर देता है। दुन्ति होकर जुए को तोड़ देता है। और सू-सू आवाज करके वाहन को छोड़कर भाग जाता है। अयोग्य बैल जैसे वाहन को तोड़ देते हैं, वैसे ही धैर्य में कमजोर शिष्यों को धर्म-यान में जीतने पर वे भी उसे तोड़ देते हैं। कोई ऋद्धि-ऐश्वर्य का गौरव (अहंकार) करता है, कोई रस का गौरव करता है, कोई सात-सुख का गौरव करता है, मो कोई चिरकाल तक कोध करता है। कोई भिक्षाचरी में आलस्य करता है, कोई अपमान से हरता है, तो कोई स्तब्ध है-धीठ है । हेतु और कारणों से गुरु कभी किसी को अनुशामित करता है। तब वह बीच में ही बोल उठता है, मन में द्वेष प्रकट करता हैतमा बार-बार आचार्य के वचनों के प्रतिकूल आचरण छिन्नाले छिन्नई सिल्लि, दुइन्तो मंजए जुर्ग । से वि व सुस्सुयाइत्ता, उज्जाहिता पलायए । खलुंशा जारिमा जोज्जा, दुस्सीसा विहु तारिसा। ओइया धम्मजाणम्मि, भज्जस्ति थिइदुचला ।। इड्ढीगारखिए सायागारविए एगे, एगेऽस्य एगे, एगे रसगारवे। सुधिरकोहर्ष ।। भिवशालसिए एगे, एगे अरेमाणमोहए थर्ड। एमं च भणसासम्मी, कहि कारणेहि ५ ॥ सो वि अन्सरमा सिहलो, दोसमेव पकुवई। आपरियाणं से बयणं, परिकलेह अभिवखणं ।। न सा ममं वियागाइ, न विसा मा काहिह । (मुरु प्रयोजनवश किसी धाविका से कोई वस्तु लाने को निभाया होहि मन्ने, साहू मनो स्य बच्चउ ॥ कहे, तब वह कहता है) वह मुझे नहीं जानती, वह मुझे नहीं देगी, मैं जानता हूँ, वह घर से बाहर गई होगी। इस कार्य के लिए मैं ही क्यों, कोई दूसरा साधु चला जाए। पेसिया पलिउचन्ति, से परियन्ति समन्तओ । किसी कार्य के लिए उन्हें भेजा जाता है और वह कार्य किए रायबेट्टि व मनन्ता, करेन्ति भिडि मुहे ॥ बिना ही लौट जाते हैं। पूछने पर कहते हैं--उस कार्य के लिए आपने हमसे कब कहा था? वे चारों ओर घूमते हैं, किन्तु गुरु के पास कभी नहीं बैठते। कभी गुरु का कहा कोई काम करते हैं तो उसे राजा की बेगार की भाँति मानते हुए मुंह पर भृकुटी तान सेते हैं - मुंह को भचोट लेते हैं। १ दुम्गओ वा पओएणं चोइओ वहई रहं । एवं दुब्युद्धि किच्चाणं वृत्तो वृत्तो पकुब्बई ॥ -दस- अ.६ उ.२, गा.१६
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
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