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________________ पूत्र १३२-१३३ अमिनीत को उपमाएँ विनय ज्ञानाचार ५०-अणुकंप परश्च कति पडिणीया पण्णता ? उ.-गोयमा ! तओ पविणोया पण्णता, सं जहा सबस्सिपरिणीए गिलाणपडिणीए, सेहपरिणाए। पा--सुर्य मंते ! पश्च कति पहिणीया पणता? प्र०-भगवन् ! अनुकम्प्य (साधुओं) की अपेक्षा से कितने प्रत्यनीक कहे गए हैं? ज-गौतम ! तीन प्रत्यनीक कहे गए हैं । वे इस प्रकार(१) तपस्वी-प्रत्यनीक, (२) ग्लान-प्रत्यनीक, (३) शैक्ष (नजदीक्षित)-प्रत्यनीक । प्रा-भगवन् ! ध्रुत की अपेक्षा कितने प्रत्यनीक कहे ज०- गोयमा ! तो परिणीया पण्णता, सं जहा-- सुत्तपडिगीए, अस्थपक्षिणीए, तदुमयपडिणीए । ५०-भावं णं मते ! पडुच्च कति पडिणीया पण्णता? उ०-गौतम ! तीन प्रस्थनीक कहे गए हैं। वे इस प्रकार(१) सूत्रप्रत्यनीक, (२) अर्थप्रत्यनीक, (३) तदुभयप्रत्यनीक । प्र०—भगवन् ! भाव की अपेक्षा कितने प्रत्यनीक कहे गए हैं ? 1.-गोयमा ! तओ पडिगीया पण्णता, तं महा 3०-गौतम ! तीन प्रत्पनीक कहे गए है । वे इस प्रकारनाणपक्षिणीए, सणपडिणीए, (१) ज्ञान-प्रत्यनीक, (२) दर्शन-प्रत्यनीक चरितपरिणीए। -वि. स. ८, उ. ८, सु. १-७ (३) चारित्र-प्रत्यनीक । अविणीय उवमाइ अविनीत की उपमाएं१३३. जहा मुणी पूड-कण्णी, निपकसिम्मइ सम्वसो। १३३. जैसे सड़े हुए कानों वाली कुतिया सभी स्थानों से निकाली एवं दुस्सोल-पडिणीए, मुहरी निक्कासिज्जई॥ जाती है, वैसे ही दुःशील, गुरु के प्रतिकूल वर्तन करने वाला और वाचाल भिक्षु गण से निकाल दिया जाता है। कण-कुण्डगं चात्ताणं, विट्ठ भुजह सूपरे । जिस प्रकार सूअर दायलों की भूसी को छोड़कर विष्ठा एवं सौलं चहताणं, चुस्तीले रमई मिए। खाता है, वैसे ही अज्ञानी भिक्षु शीन को छोड़कर दुःशील में रमण करता है। सुणियामा साणस्स, सूपरस्स नरस्स य। __ अपनी आत्मा का हित चाहने वाला भिक्षु कुतिया और विषए टवेज्ज अपाणं, इसछन्तो हियमप्पणो॥ सूअर की तरह दृष्ट मनुष्य के अभाव (हीन भाव) को सुनकर -उत्त. अ. १, गा. ४-६ अपने आप को विनय में स्थापित करे। मा "गलिपस्से व" कसं, क्यणमिन्छे पुणो पुणो । जैसे अविनीत घोड़ा चाबुक को बार-बार चाहता है, वैसे कसं व बठुमारणे, पावगं परिवज्जए । विनीत शिष्य गुरु के वचन को (आदेश-उपदेश) को बार-चार न -उस. अ.१, मा. १२ चाहे । जैसे विनीत घोड़ा चाबुक को देखते ही उन्मार्ग को छोड़ देता है, वैसे ही विनीत शिष्य गुरु के इंगित और आकार को देखकर अशुभ प्रवृत्ति छोड़ दे। जे य को मिए बडे, दुग्याई नियडी सो। जो चण्ड, मृग-अज, स्तब्ध, अप्रियवादी, मायावी और शठ वृम्साह से अषिणीयच्या, कटु सोयगयं जहा ॥ है, वह अविनीतात्मा संसार-स्रोत में वैसे ही प्रवाहित होता रहता है जैसे नदी के स्रोत में पड़ा हुआ काय । विगयं वि जो जवाएणं, चौडओ कुपाई नरो । विनय में उपाय के द्वारा भी प्रेरित करने पर जो कुपित विश्वं सो सिरिमेजति, बजेण पडिसेहए । होता है, वह आती हुई दिव्य लक्ष्मी को डण्डे से रोकता है। -दस, अ. ६, उ. २, सु. ३-४ १ ठाणं.अ. ३,उ.४, सु. २०८
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
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