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________________ १३६-१४० पेसले सुहुने पुरिसजाते, जश्चणिए चैव मुउज्जुपारे । हुचि अनुसरसिले के तहुच्चा, समे हु से अविणीय सुविनयाण चितण- १२७वेश मे, अश्कोसा व पहा कल्याणमनुसासन्तो पायविट्टि ति P falta-fat का स्वगत चिन्तन होति अझपत्ते ॥ सूम. श्रु. १, अ. १३, गा. ६-७ २.पण्डए २. वाइए, ३. की तेली असावणाओ पुतो मे भाथ नाइ सि साहू कस्लाण मई। पायरिया सरसं "दासं व" मन्नई ।। १, ३०-३१ 1 -उत्सव. ग्रा. पंच असिक्खा ठाणाणि - १३८. अह पंचहि ठाणेह, जेहि सिक्खा न लभई । चम्या कोहा यमाएणं, रोगालरस एग सिवाए अणुवचला १३६. मोतिहा " मन्नई ॥ १. हे सेहत | य ॥ -- उत्त. अ. ११, ग्रा. ३ रु.उ.४, यु. १४०असायगाओ पण्णताओ । पपरा बताओ रेहतीस सायगाओ पणताओ ? उ०- माओबाओ मेरे भगवते तो आया गाओ पण्णताओ, से जहा तं पुरवो यंता, भय आसावया २. सेरापिक गंता, भवई असा पणा सेहस्स । ३. सेहे रामणिस्स आसन्नं गंता, मवई आसायणा मेस्स विनय नामाचार मूल होने पर आचार्य आदि के द्वारा अनेक बार अनुशासित होकर भी अपनी दे रहता है, वह साधक मृदुभाषी या विनयादिगुणयुक्त है। वही सूक्ष्मायंदर्शी है, वही वास्तव में संगम में पुरुषार्थी हैं, तथा वही उत्तम जाति से समन्वित और साध्वाचार में ही सहज-सरल-भाव से प्रवृत्त रहता है । वही सम है, और अरु प्राप्त है (अथवा वही मुसरक्षक जीतराम पुरुषों के समान असा प्राप्त है ) । विनीत- अविनीत का स्वगत चिन्तन [ea १३७. पाप-दृष्टि वाला शिष्य गुरु के कल्याणकारी अनुशासन को भी ठोकर मारने, चांटा जिपकाने, गाली देने व प्रहार करने के समान मानता है । गुरु मुझे पुत्र, भाई और स्वजन की तरह अपना समझकर शिक्षा देते हैं ऐसा होन विनीत विष्य उनके अनुषासन को कल्याणकारी मानता है। परन्तु कुशिष्य हितानुशासन से शासित होने पर अपने को दास तुत्य मानता है । शिक्षा प्राप्त न होने के पाँच कारण -- १३८. निम्न पान स्थानों (हेतुओं) के शिक्षा प्राप्त नहीं होती-(१) मान. (२) क्रोध, (३) प्रमाद (४) रोग, (५) आलस्य शिक्षा के अयोग्य १३९. इन तीनों को शिक्षित करना नहीं करूपता है, यथा तेवीस आज्ञावनाएं (१) पण्डका वाला, (२) वातिक- कामवासना का दमन न कर सकने वाला, (३) खली - असमर्थ ॥ १४०. इस आत प्रववन में स्थविर भगवन्तों ने तेतीरा आशात नाएं कही हैं प्र० - उन स्थविर भगवन्तों ने वे कौन सी तेतीस आशात नाएं कही हैं ? उ०- उन स्थविर भगवन्तों ने ये तेतीस भगातनाएँ कही हैं। जैसे— (१) (अप दीक्षापवाला) रानिक साधु के आगे चले तो उसे आयातना दोष लगता है । T (२) रालिक साधु के समक्ष ( समश्रेणी- बराबरी में ) चले तो उसे आशातना दोष लगता है। शतक साधु के आसन (अति) होकर (३) चले तो उसे आशातना दोष लगता है ।
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
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