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________________ • १७२३ पांचवें अपरिग्रह महाव्रत की पांच भावनाएं चारित्राचार [४६६ NAAMKARAM की तरह एक दूसरे को मिलाकर बनाये गये हों, अनेक प्रकार की मालाओं के रूप में हों और वे नयनों तथा मन को अत्यन्त आनन्द प्रदान करने वाले हों (तथापि उन्हें देखकर राग नहीं उत्पन्न होने देना चाहिए। वणसं पश्यते । यामागर-नगराणि य पुद्दियपुक्खि- इसी प्रकार बनखण्ड, पवंत, ग्राम, नगर, छोटे जलाशय, रिणि-वाधी--दोहियगुजालिय--सरसरपतिय-सागर- गोलाकार बावड़ी, दीपिका-सम्त्री बाबड़ी नहर, सरोवरों की बिलंपतिय-खाथिय-मबी-सर-सलाग-वप्पिणी-फुल्लुप्पल- पंक्ति समूह बिलपंक्ति लोहे भादि की खानों में खोदे हुए गड़कों पउम-परिमंज्यिाभिरामे, अणेग-सउण-गण-मिहुम- की पंक्ति खाई नदी बिना खोदे प्राकृतिक रूप से बने जलाशय, विचरिए। तालाब, पानी को क्यारी जो विकसित नील कमलों एवं (श्वेतादि) कमलों से सुशोभित और मनोहर हो। जिनमें अनेक हंस, सारस आदि पक्षियों के युगल विचरण कर रहे हों। परमंडव-विविह मवण-तोरण-चेतिय देवकुल-समप्पया. उत्तम मण्डप, विविध प्रकार के भवन, तोरण, चैत्य, देवाबसह-सुकय - सयणासण-सीय-रह-सयण-जाण-जुग- लय, सभा-लोगों के बैठने के स्थान विशेष, प्याऊ, आवसथ, संवण-नर-नारिगणे य, सौम-परिव-वरिसणिज्जे- परिवाढकों के आश्रम, सुनिर्मित चयन-पलग आदि सिंहासनअसशिप-विभूलिए, पुश्वकम-तषप्पमाव-सोहम्ग-संप- आसन, थिविका-पालकी, रथ-गाड़ी यान, युग्म (टमटम) स्यन्दनउसे। धुंबल्दार स्थानिक र और नर-नारियों का समूह, ये सब वस्तुएँ यदि सौम्य हों, आकर्षक और दर्शनीय हों, आभूषणों से अलंकृत और सुन्दर वस्त्रों से विभूषित हों, पूर्व में की हुई तपस्या के प्रभाव से सौभाग्य को प्राप्त हों (इन्हें देखकर) नर-नट्टग - जल्ल - मस्स - मुहिम-लंबग-कहग-पग- तथा नट, नतंक, जल्ल, मल्ल, मौष्टिक, विदूषक, कथालासग आबक्खगलंच-मख-तूणहरुल-तुम्ब-वीणिय- वाचक, प्लवक, रास करने वाले व वार्ता करने वाले, चित्रपट तालायर पकरणागि व बहणि सुकरणाणि। लेकर भिक्षा मांगने वाले, बांस पर खेल करने वाले, तुणइस्ल तुणा बजाने वाले, तुम्बे की वीणा बजाने वाले एवं तालाचारों के विविध प्रयोग देखकर तथा बहुत से करतबों को देखकर तथा, अग्नेसु य एबमाइए सबेसु मगुनभहएतु तेसु समणेण इस प्रकार के अन्य मनोश तथा सुहावने रूपों में साधु को न सस्मियध्वं, न रज्जियमब-आब-न सहच, माघ आसक्त नहीं होना चाहिए, अनुरक्त नहीं होना चाहिए-पाबसत्य कुज्जा। उनका स्मरण और विचार भी नहीं करना चाहिए। पुणावि खिचिएण पासियकवाई अमणुन- इसके सिवाय चक्षुरिन्द्रिय से अमनोज्ञ और पापकारी रूपों पावकार को देखकर (रोष नहीं करना चाहिए)। प्र-वे (अमनोज्ञ रूप) कौन से हैं। --टि-कोविक कुगि-उबरि-कनछुल्ल-पदल्ल-ज-पंगुल- २०-गंडमाला के रोगी को, कुष्ठ रोगी को, जूले या टोंटे धामण - अंधिलगा - एसक्यु-विणिय-सप्पि-सल्लग- जलोदर के रोगी को, खुजलो बाले को, हाथीरगा या श्लीपद के बाहिरोगपीलियं विययाणिय मयककलेबराणि सकिमि- रोगी को, लंगड़े को, वामन-बोने को, जन्मान्ध को, एकरा पकुहियं व बम्परासि । (काणे) को, विनिहत चक्षु को-जन्म के पश्चात् जिसकी एक या दोनों आँखें नष्ट हो गई हों, पिशाचग्रस्त को अथवा पीठ से सरक कर चलने वाले को, विशिष्ट चित्तपीड़ा रूप व्याधि या रोग से पीड़ित को (इनमें से किसी को देखकर) तथा विकृत मृतक-फलेवरों को या बिलबिलाते कीड़ों से युक्त सड़ी-गली द्रध्यराशि को देखकर ।
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
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