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घरमानुयोग
पांचवें अपरिग्रह महाव्रत की पांच भावनाएँ
भूत्र ७२३
अग्नेसु य एवमाइएसु अमणुनपायएसुसेसु समणेण न अथवा इनके सिवाय इसी प्रकार के अन्य अमनोज और रूसियम्व-जाब-न गुछा वतियाए लम्मा उत्पाते। पापकारी रूपों को देखकर श्रमण को उन रूपों के प्रति रुष्ट नहीं
होना पाहिए.-याव-मन में जुगुप्सा भी नहीं उत्पन्न होने
देनी चाहिए। एवं विदिषभावणभाविनो भवद अंतरप्पा-जाव- इस प्रकार चक्षुरिन्द्रिय संवर रूप भावना से भावित अन्त.चरेज्जनम्मं ।
करण वाला मुनि-- यावत्-धर्म का आमरण करे। ततियं
तृतीय भावना-घ्राणेनिय संयमधागिदिएण अग्पाइए गंधाइं भणुन महगाई
घ्राणेन्द्रिय से मनोज्ञ और सुहावना गंध सूंघकर (रागादि
नहीं करना चाहिए) प०-किते?
प्र०–बे सुगन्ध क्या कैसे हैं ? उ०--जलय - थल्लय • सरस-पुप्फ-फल-पाण-भोयण-कुट्ठ-तगर- उ-जल और स्थल में उत्पश होने वाले सरस पुष्प, फल,
पत्त चोय - बमणक-मल्य-एलारस-पक्कमसि-गोसीस- पन, भोजन, उत्पलकुण्ठ, तगर, तमालपत्र, पोय-सुगन्धित त्वचा सरस-चवण-कापूर-लवंग-अगर-कुकुम-कक्कोल-उसीर- दमनक-एक विशेष प्रकार का फूल मरा, एलारस-इलायची सेयचवण-सुगंध-सारंग-जुत्तिवरधुववासे, उडय-पिडिय- का रस, जटामांसी नामक सुगन्धित द्रव्य, सरस गोशोष चन्दन, निहारिम गधिएम।
कपूर, लवंग, अगर, कुंकुम, कक्कोल-गोलाकार सुगन्धित फलविशेष, उशीर-बस, श्वेत चन्दन आदि द्रष्यों के संयोग से बनी श्रेष्ठ धूप की सुगन्ध को सूंघकर (रागभाव नहीं धारण करना
अन्नेसु य एवमाइएसु गंधेसु मन्न भएसु तेसु सम- तथा भिन्न-भिन्न ऋतुओं में उत्पन्न होने वाले कालोचित ग म सज्जियथ्य-जाव-न सइंच, मईच तस्य सुगन्ध वाले एवं दूर-दूर तक फैलने वाली सुगन्ध से युक्त द्रव्यों
में और इसी प्रकार की मनोहर, नासिका को प्रिय लगने वाली सुगन्ध के विषय में मुनि को आसक्त नहीं होना चाहिए
-पाव-उनका स्मरण और विचार भी नहीं करना चाहिए। पुणरवि धाणिविएण अपघाइयगंधाइ अमगुन- इसके अतिरिक्त प्राणेन्द्रिय से अमनोज्ञ और असुहावने गन्धों पविगाई
को सूंघकर (रोष आदि नहीं करना चाहिए)। ५०-किसे?
प्रक-दुर्गन्ध कौन से हैं? १०--महिमा-अस्समर-स्थिमड-गोमड- विग-सुणग-सियाल- उ.-मर। हुआ सर्प, मृत घोड़ा, मृत हाथी, मृत गाय तथा
मनुष-मज्जार-सीह-वीषिय-मय-कुहिय-विट्ठ-किषिण- भेड़िया, कुत्ता, मनुष्य, बिल्ली, शृगाल, सिंह और चीता आदि बहदुरभिगन्धेसु ।
के मृतक सड़े-गले कलेवरों की, जिसमें कीड़े बिलबिला रहे हो,
दूर-दूर तक बदबू फैलने वाली गन्ध में अग्नेसु य एवमाइएसुगंधेसु अमणन्न-पावएसु तेसु सम- तथा इसी प्रकार के और भी अमनोज्ञ और असुहावनी मेण न कसियन्व-जावान बुगुकावत्तियाए सम्भा दुर्गन्धों के विषय में साधु को रोष नहीं करना चाहिए-यावतुउप्पाएर ।
मन में जुगुण्सा-घृणा भी नहीं होने देनी पाहिए। एवं घाणिविय मावणा माविओ भबत अंतरप्पा-जाव- इस प्रकार अन्तरआत्मा घ्राणेन्द्रिय की भावना से भावित परेश धम्म ।
होती है यावत्-धर्म का आचरण करे । चउत्थं
चतुर्थ भावना-रसनेन्द्रिय संघमजिग्मिविएणसाइय-रसाणि उ मणुन-एगाई
रसना-इन्द्रिय से मनोज्ञ एवं मुहावने रसों का आस्वादन करके (उनमें आसक्त नहीं होना चाहिए ।)