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________________ ४६.. चरणामुयोग पांच अपरिग्रह महावन की पाँच भावनाएं गिरिप्रयम्ब, न मुज्मिपत्वं न विनिम्घाय, न आव- मनोज्ञ एवं सुहावने वचनों को (सुनकर) उनमें साधु को आसक्त जियवं, न सुमिपावं, न तुसियवं, से हसियवं, न नहीं होना चाहिए, राग नहीं करना चाहिए, गृद्धि-अाप्ति की सईच, मई च सत्य कुज्जा। अवस्था में उनकी प्राप्ति की आकांक्षा नहीं करनी चाहिए, मुग्ध नहीं होना चाहिए, उनके लिए स्व-पर का परिहनन नहीं करना चाहिए, लुब्ध नहीं होना चाहिए, तुष्ट-प्राप्ति होने पर प्रसन्न नहीं होना चाहिए, हंसना नहीं चाहिए, ऐसे शब्दों का स्मरण और विचार भी नहीं करना चाहिए। भारवि सोइविएण सोच्चा सहावं अमणुनपावगाई। इसके अतिरिक्त श्रोत्रेन्द्रिय के लिए अमनोज मन में अप्रीति जनक एवं पापक-अभद्र शब्दों को सुनकर (हष) नहीं करना चाहिए। प०-किसे? प्र.-वे शब्द कौन से हैं ? २०-अकोस-फम-खिसण-अवमाणण-तजण-निमंछण- उ.-आक्रोश वचन (क्रोध में कहे जाने वाले) कठोर वचन, वित्तवपण-तासण-उजिय-सन्न-रडिप-कविय-निग्ध- निन्दाकारी वचन, अपमान भरे शब्द, डांट-फटकार निर्भर्सना रसियाकसुण-बिलवियाई। (धिक्कारना), कोप वचन, त्रासजनक वचन, अस्पष्ट उच्च ध्वनि, निर्घोष रूप ध्वनि, जानवर के समान चीत्कार, करुणाजनक शब्द तथा विलाप के शब्द इन सब शब्दों काअम्नेमु य एवमाइएसु ससु अमगुण्ण-पावएसु तेसु तथा इसी प्रकार के अन्य अमनोज एवं पापक-अभद्र शब्दों समशेण न कसियस, न हीलियध्वं, न निरियम्ब, न का सुनकर रोष नहीं करना चाहिए, होलना नहीं करनी चाहिए. खिसियल्पं, न छिवियावं, न मिवियम्, न बहेयम्व, निन्दा नहीं करनी चाहिए, जनसमूह के समक्ष उन्हें बुरा नही पछाबत्तियाए सम्भा उप्पाएछ । कहना चाहिए, अमनोज शब्द उत्पन्न करने वाली वस्तु का छेदन नहीं करना चाहिए, भेदन-टुकड़े नहीं करने चाहिए, उसे नष्ट नहीं करना चाहिए। अपने अथवा दूसरे के हृदय में जुगुप्सा उत्पन्न नहीं करना चाहिए। एवं सोविय-भावणा-माविमो भवद अंतरप्पा । इस प्रकार योन्द्रिय (संयम) की भावना से भावित अन्तः मणप्रामणुन-मुग्मि-दुन्मि-राग-बोसप्पणिहियप्पा साहू करण बाला साधु मनोज्ञ एवं अमनोज शुभ-अशुभ शब्दो में रागमण-वयण-काययुसे संपुर पणिहितिाबए चरेज हुष के संवरवाला, मन वचन और काम का गापन करने वाला, संवरयुक्त एवं गुप्तेन्द्रिय इन्द्रियों गोपन-कर्ता होकर धर्म का आचरण करे। वितीयं द्वितीय भावना-चक्षुरिनिय संवरअस्विविएप पासिष रुवाई मणुभाई भगाई चक्षुरिन्द्रिय से मनोज्ञ के अनुकूल एवं भद्र-सुन्दर सचित्त सचित्ताचित मीसगाई द्रव्य, अचित्त द्रव्य और मिथ सचित्ताचित्त द्रव्य के रूपों को देखकर (राम नहीं करना चाहिए ।) प.-किसे? प्र-वे रूप कौन से हैं ? उ.-कट्ठ पोरणे व पित्तकम्मे मेप्पकम्मे सेले य, पंतकम्मे व -वे रूप चाहे काष्ठ पर हों, वस्त्र पर हों, चित्र-लिखित यहि अण्णेहि भनेग-संठाण-संधियाई गठिम-वेदिम- हों, मिट्टी आदि के लेप से बनाये गये हों, पाषाण पर अंकित पूरिम-संघातिमाणि य मरूलाई बहुबिहाणि य अहिम हों. हाथी दांत आदि पर हों, रांच वर्ण के और नाना प्रकार के नयण-मण-सुहकराई। आकार वाले हों, गूंथकर माला आदि की तरह बनाये गये हों, बेष्टन से, चमड़ी आदि भरकर अथवा संघात से-फूल मावि
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
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