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________________ पानी ग्रहण करने के विधान और निषेध चारित्राधार : एषणा समिति [६३१ से मिक्लू बा, भिक्खूणी वा गाहावाकुलं पिटवापपरियाए गृहस्थ के घर में पानी के लिए प्रविष्ट भनु या भिक्षुणी अणुपविट्ठ समाणे से जं पुण पागगजाय जाणेज्जा- पानी के इन प्रकारों को जाने जैसे कि१६. उस्लेहम वा', २०. संसेइम का, २१, चाउलोवगं (१६) आटे का हाथ मा बर्तन धोया हुआ पानी, (२०) वा अण्णपर या तहप्पगार पाणगणापं अगायो, अणचिल, उबले हुए तिल भाजी आदि धोया हुआ पानी, (२१) चाधल अबुक्कतं, अपरिणयं, अविववत्य, अफासुर्य-जाव-गो धोया हुआ पानी अथवा अन्य भी इसी प्रकार का पानी जो कि पडिगाहेजा। तत्काल धोया हुआ हो, जिसका स्वाद परिवर्तित न हुआ हो, जिसमें जीव अतिक्रान्त न हुए हों, जो शस्त्र न परिणत हुआ हो, और सर्वथा जीव रहित नहीं हुआ हो तो ऐसे पानी को अप्रासुक जानकर यावत्-ग्रहण न करे। मह पुष एवं जाणेमा-चिराधोयं, अंबिल, बुक्स, किन्तु मदि यह जाने कि बहुत देर का धोया हुआ धोबन है. परिणयं, विश्वस्पं, फासुयं-जाव-पडिगाहेजा। इसका स्वाद बदल गया है, जीवों का अतिक्रमण हो गया है, शस्त्र -आ. सु. २, अ.१, उ. ७, सु. ३६६ परिणत हो गया है और सर्वथा जीव रहित हो गया है तो उस जल को प्रासुक जानकर यावत् ग्रहण करे। १ उत्स्वेदिम जल के सम्बन्ध में टीकाकारों के विभिन्न मत इस प्रकार हैं (क) उत्स्वेदेन निर्वतमुत्स्वेदिमं - येन ब्रीह्यादि पिष्टं सुराधर्य उत्स्वेद्यते। -ठाणं. अ. ३, उ. ३, सु. १८२ की टीका (ख) उस्सेइम वे ति-पिष्टोत्स्वेदनाथं मुदकम् । -आ. सु. २, न १, स. ७, सु. ४२ की टीका पृ. २३१ (ग) उस्सेइमे ति–पिष्टभृतहस्तादिक्षालनजले । - दसा. द. ८, सु. ३०को टीका (घ) उस्सेइम पाम जहर पिट्ठपुषका यभायणं आउकायस्म भरेत्ता मीसए अवहिज्जति सुहं से पत्थे] उहाष्टिजति ताहे पिट्ठपयणयं रोट्टस्स भरेता ताहे तीसे थालीए जलभरियाए उवरि ठविज्जति ताहे आहे छिद्देणं तं पि ओसिज्जति हेट्टा हुतं या उविज्जइ, तत्थ जं जाम उस्सेतिमाम भणति । –नि. उ. १५, सु. १२, भा. गा. ४७०६ की चूणि पृ. ४८४ २ संसेइम जल के सम्बन्ध में व्याख्याकारों के मत इस प्रकार है(क) संसेकन निवृत्तमिति संसे कमम् । अरणिकादि पत्रशाकमुत्काल्य येन शीतलजलेन संसिच्यते तदिति । ठाणं, अ. ३, उ. ३. सु. १६२ की टीका पत्र १४७ (ख) संसहमं वे ति-तिलधावनोदकम् । यदिवा-आरणिकादि संस्विन्नधावनोदकम् । -आचा. सु. २, अ. १, उ. , मु. ४१ की टीका पृष्ठ १४७ (ग) संसेइमे-पिष्टोदके। -दस. अ. ५, उ. १, गा. १०६ की टीका (घ) उसिणं (उष्ण पदार्थ) सीतोदगे शुभति त जं पुण उसिणं चेष उरि सीतोदग चेव तं संसहमं । अह्या संसदम-तिला उण्हं पाणिएणं सिण्णा जति सीतोदरेण धोति तं संसेतिमं मण्णति । -नि. उ. १७, सु. १३२, भा. गा. ३.६६६ पृ. १६५ (छ) संसेइमे-अरणिकासंस्विन्नधावनोदके । -दसा द. ८, सु.३० ३ (क) यहाँ तीन प्रकार के पानी लेने का सामान्य विधान है। (ब) चउत्यत्तियस्त णं भिक्खुस्स कप्पति तो पाणगाई पडिगाहित्तए. तं जहा–उस्तेइन, संसेइमे, चाउलोदगे (गाउनधोबणे)। -ठाणं. अ. ३, उ. ३, सु. १८८ चतुर्थ भक्त करने वाले श्रमण को ये तीन प्रकार के पानी लेने कल्पते हैं, अत: यह विशेष विधान है। (ग) बासावासं पज्जोसबियस चउत्पत्तियस्स भिक्खुस्न कप्पंति तमो पाणगाई पडियाहित्तए, तं जहा–उस्सेइम, संसेइमं पाउलोदगं । - दसा. द. ८, सु. ३० वर्षावास में रहे इए श्रमण को ये तीन प्रकार के पानी लेने कल्पते हैं अत: यह भी विशेष विधान है।
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
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