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चरणानुयोग
अनमोश जल परिण्ठापन का प्रायश्चित्त सूत्र
सूत्र
-१
अमणुष्ण पाणग परिट्ठवण पायच्छित्त सुतं
अनमोज्ञ जस परिष्ठापन का प्रायश्चित्त सूत्र६८. जे भिक्खू अग्णयरं पाणगजाय पडिग्गाहिता पुष्फर्ग-पुप्फग ६८. जो भिक्षु अनेय प्रकार के पानकों को गृहस्थ के घर से आइयद, कसायं-कसायं परिवेड़ परिवार का साइजा। तार गर्ने न ल वी परेणा है और मनमोज्ञ जल को
परठता है, परठवाता है या परठने वाले का अनुमोदन करता है। तं सेवमाणे आवम्जइ मासियं परिहारट्टाणं उग्घाइयं । उसे मासिक उद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) आता है।
-नि. उ. २, सु. ४३ अहणाधोयं पाणगं गहणस्स पायच्छित्तसुतं--
तत्काल धोये पानी को ग्रहण करने का प्रायश्चित्त सूत्र६६.जे मिक्स -
६६. जो भिक्षु१. उस्सेइमं वा, २. संसहमं था, (१) उत्स्वेदिम,
(२) संस्वेदिम, ३. चाउलोदगं वा, ४. वारोवगं बा,
(३) चावलोदक,
(४) दारोदक, ५ तिलोदगं वा. ६. तुसोवगं चा,
(५) तिलोदक,
(६) तुषोदक, ७. जबोवगं वा, .. आयाम बा, (७) यवोदक,
(८) ओसामण, ६. सोवीरं वा, १०. अंबजियं वा,
(९) कात्री,
(१०) आम्लकांजिक, ११. सुद्धवियर्ड वा
(११) शुद्ध प्रामुक जल को, १. अहुणाधोयं,
(१) जो तत्काल का धोया हो, २. अणहिलं,
(२) जिसका रस बदला ग हो. ३. अपरिणयं,
(१) शस्त्रपरिणत न हो, ४. अवक्कतं,
(४) जीवों का अतिश्रमण न हुआ हो या, ५. अविद्वत्थं,
(५) पूर्ण रूप से अचित्त न हुआ हो, पहिगाहेइ पडिग्गाहेंत बा साइज्जइ ।
ऐरो जल को ग्रहग करता है, करवाता है या करने वाले का
अनुमोदन करता है। तं सेवमाणे आवन्जद चाउम्मासि परिहारट्टागं साधाइयं । उसे चातुर्मासिक सद्घातिक परिहारम्यान (प्रायश्चित्त
-नि. ३.१७, सु. १३२ आता है।
शय्यषणा-विधि-१
समणवसइ जोग्ग ठाणाई
श्रमण के ठहरने योग्य स्थान७०. मुसाणे सुनगारे वा, रुक्समूले व एक्कयो ।
७०. भिक्षु श्मशान में, शून्य गृह में, वृक्ष के मून' में अथवा परिकके परकडे वा, वासं तत्वभिरोयए । परकृत एकान्त स्थान में रहने की इच्छा करे। फासुर्याम्म अणाबाहे, हस्थीहि अगभिवयुए।
परम सयत भिक्षु प्रामुक, अनादाध और स्त्रियों के उपद्रव तस्य संकप्पए बासं, भिक्खू परमसंजए॥
से रहित स्थन में रहने का संकल्प करे।
-उत्त. अ. ३५, गा. ६-७ जवसयस्स जायणा
उपाश्रय की याचना७१. से आगंतारेसु का, आरामागारेसु वा, गाहायतिकुलेसु था, ७१. साधु पथिकणालाओं, आरानगहों, गृहपति के घरों, परि
परियावसहेसु वा, अणवीइ उबस्सयं जाएज्जा । जे तस्थ बारकों के मठों आदि को देख-जानकर और विचार करके फिर ईसरे, जे तस्थ समहिद्वाए, ते उबस्सयं मणुष्णवेज्जा । उपाश्रय की याचना करे। उस उपाश्रय के स्वामी को या
समधिष्ठाता की आज्ञा मांगे और कहे