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________________ उपाश्रम में प्रवेश-निष्क्रमम की विधि चारित्राचार : एषणा समिति [६॥ "काम खल आउसो ! अहाल अहापरिष्णाय असिस्सामो "आयुष्मन् : आपकी इच्छानुसार जितने काल तक निवास -जाव-आउसंतो, जाय-आउसंतस्स उबस्सए.-जात्र-साहम्पिया, करने की तुम आज्ञा दोगे उतने समय तक हम निवास करेंगे । एत्ता आव उपस्सयं गिहिस्सामो, तेण परं विहरिस्तामा। यहां जितने समय तक आप आयुष्मन् को अनुज्ञा है उतनी अवधि - आ..., अ. २. स. न.:४५ जितने भी सामिक साधु आयेंगे, उनके लिए भी उतने क्षेत्र-काल की अवग्रह अनुज्ञा अदा करेंगे । वे भी उतने ही समय तक उतने ही क्षेत्र में ठहरेंगे। उसके पश्चात् वे और हम विहार कर देंगे। उवस्सए पवेस-णिक्खमण विही-- उपाश्रय में प्रवेश निष्क्रमण की विधि७२. से मिबखू वा, भिवगी वा से ज्ज पुण उपस्सयं जाणेजा- ७२. वह भिक्ष या भिक्षुणी यदि ऐसे उपाश्रय को जाने, जो छोटा बुखियाओ, पुनारियाओ, नीयाओ, संगिरुवाओ है या छोटे द्वारों वाला है तथा नोचा है तथा अन्य श्रमण प्राह्माण मयंति, तहप्पगारे उचस्सए रानो वा, चियाले वा, णिक्य- आदि से अवरुद्ध है । इस प्रकार के उपाश्रम में (कदाचित् किसी ममाने या, पविसमार्ग या पुरा हत्येन पच्छा पाएण ततो कारणवश साधु को ठहरना पड़े तो) वह रात्रि में या विकाल में संजयामेव गिषखमेग्ज दा, परिसेल वा। भीतर से बाहर निकलता हुआ सा बाहर से भीतर प्रवेश करता हुआ पहले हाथ से टटोल ले, फिर पैर से यतनापूर्वक निकले या प्रवेश करे। केवली या आयाणमेयं । केबली भगवान कहते हैं- अन्यथा) यह कर्मबन्ध का कारण है। जे तस्य समणाण वा, माहणाग था, छत्तए था, मत्तए वा, क्योंकि वहाँ पर शाक्य आदि श्रमणों के मा बाह्मणों के जो बंडए वा, लट्ठिया वा, भिसिया था, णालिया बा, चेले बा, छत्र, पात्र, दण्ड, लाठी, ऋषि-आसन दृषिका) नालिका (एक चिलिमिली वा, बम्भए वा, चम्मकोसए वा, चम्मच्छेदणए प्रकार की लम्बी लाठी या घटिका) वस्त्र, चिलिमिलि (मनिका, वा दुबो दुणिक्खित्ते अणिकपे चलाचले। पर्वा या मच्छरदानी) मृगचर्म, वर्मकोय या चर्म-छेदनक हों, वे अच्छी तरह से बँधे हुए नहीं हों, अस्तव्यस्त रखे हुए हों, अस्थिर हों, चनाचल हों (उनकी हानि होने का डर है)। भिक्खू य सतो या. बियाले या, निषखममाणे वा, पविस- भिक्षु रात्रि में या विकाल में अन्दर से बाहर या बाहर से माणे वा, पयलेन्ज वा, पवडेज्ज वा । ___ अन्दर (अयतना से) निकलता-घुसता हुआ अदि फिसले या गिर पड़े तो (उनके उक्त उपकरण टूट जायेंगे) से तत्व पयलमाणे वा, परमाणे षा, हत्यं वा, पायं या, (भयवा उसके फिसलने या गिर पड़ने से उसके हाथ, पैर, बाहूं था, ऊस वा, उदरं वा, सीसं वा, अण्णयर श कार्यति भुजा, छाती, पेट, मिर, शरीर के कोई अंग या इन्द्रियों (अंगोइंपियजातं लूसेज्ज वा, पांगों) को चोट लग सकती है या वे टूट सकते हैं। पाणागि वा-जाव-सत्ताणि या अभिहणज्ज वा-पान-अवरो- अपवा प्राणी--यावत्-सत्वों का हनन हो जाएगा-पावत्वेज्जना। वे जीवन से भी रहित हो जायेंगे। अह भिवाणू णं पुष्योवविठ्ठा-जाव-एस उबएसे में तहप्पगारे इसलिए तीर्थकर भगवान् ने पहले से ही यह प्रतिज्ञा अवस्सए पुराहरण पच्छा पावेण सतो संजया मेव णित्रमेज्ज --यावत् - उपदेश दिया है कि इस प्रकार से (संकड़े छोटे और वा, पविसेज्ज वा। अन्धकारयुक्त) उपाश्रय में (रात को या विकाल में) पहले हाथ से -- आ. सु. २, ४. २. उ. ३, सु ४४.४ टटोल कर फिर पैर रखते हुए यतनापूर्वक भीतर से बाहर, बाहर से भीतर गमनागमन करना चाहिए ।
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
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