________________
६३०
योग
से भिक्खू या, भिक्खुणी वा जबउल्लं वा सद्धि मा पहिं णो आमनेज्ज वा जान पयावेज वा । अह पुष एवं जाणेज्जा - विगोद मे परिग्गहे छिण्ण-सिणे हे मे पाहे तपगारं पडिगहं ततो संजयामेव आमज्जेज्ज वा जाव या वेज्ज वा ।
सरस निरस पानी में समभाव का विधान
-आ. सु. २, अ. ६, उ. २, सु. ६०३, ६०४ सकता है ।
- जो कि वा परिवेज्जा ।
सरस थिरस पाणणे समभाव विहाणं
६६.
वाणी या वाहाकुलं विण्डवाडिया अणुपवि समाणे --- अण्णतरं वा पाणगजायं परिग्राहसा पुष्कं पुष्कं आविद्दत्ता कसा कसायं परिहवे माइट्ठामं संफासे । गो एवं करेज्जा ।
एसिया सम्मे
- मा. सु. २, अ. १, उ. ६, सु. ३६५ नहीं डालना चाहिए।
पागगस्स ग्रहण विहाणं जिसे च१७. सोना सिलाय
हिमाणि व सिगोमं ततफासूयं पचिणाम संजए । इस 'अ' ८ गा. ६
सायं पार्थ यदुवा बारी संचालो अगाधो वियन्जए ॥
णं आणेण विराधोयं मईए दंसणेण वा । vegच्छिऊणं सोचा वा, जं व निस्संकियं भवे ॥
अजीवं परिणयं गन्धा, पहिगाहेज्ज संजए । अह संकियं मजला, आसाइलाण रोयए ||
योमासावणट्टाए, हत्यगम्मि बलाहि मे । मा मे अविलं पूर्व नात विलिए॥
.
अनाहं विि देतियं पडियाइक्ले, न मे कप्पड तारिसं ॥
भिक्षु याभिसने आई और स्निग्ध पाप को न तो एक बार साफ करे- यावत् न ही धूप में सुखाए ।
किन्तु जब यह जान ले कि मेरा पात्र अब जल रहित हो गया है और स्नेह रहित हो गया है, तब उस प्रकार के पात्र को यतापूर्वक गाफ कर सकता है यावत्- धूप सुखा
में
-
होम अकामेणं, विमणेन परिि अध्पणा न पिये, नो वि अन्नस्स बाए ॥ एनमित्ता मति विलेहिमा | जयं परिटुवेज्जा, परिप्प पक्किमे || ५, उ. १, गा. १०६-११२
-दस
६६-६७
सरस निरस पानी में समभाव का विधान
६६. गृहस्थ के यहाँ गोचरी के लिए गये हुए भिक्षु या भि यथाप्राप्त जल लेकर मधुर पानी को पीकर और कसैला पानी को परठ दे तो वे मायास्थान का स्पर्श करते हैं । ऐसा नहीं करना चाहिए ।
वर्ण गन्धयुक्त अच्छा या कसैला जैसा भी जल प्राप्त हुआ हो उसे समभाव से पी लेना चाहिए, उसमें से जरा-सा भी बाहर
पानी हम करने के विवान और निषेध
६७. संयमी शीतोदक, ओले, बरसात के जल और हिम का सेवन न करे । तप्त गर्म जल प्रासुक हो गया हो वैसा ही जल ले ।
इसी प्रकार श्रेष्ठ अश्रेष्ठ अचित्त जल, गुड आदि के घड़े का घोवन, आटे का धोवन, चावल का धोवन, जो तत्काल बनाया हुआ हो, उसे मुनि न ले ।
अपनी मति से या देखने से तथा पूछकर उसका उत्तर सुनकर जान ले कि "यह धोक्न चिरकाल का है" और शंका रहित हो गया है।
भिक्षु उस जल को जीव रहित और परिणत जानकर ग्रहण करे । किन्तु उसके उपयोगी होने में सन्देह हो तो चल कर निर्णय करे ।
---
दाता से कहे " चखने के लिए थोड़ा-सा जल मेरे हाथ में दे दो क्योंकि बहुत खट्टा व दुर्गन्ध युक्त जल मेरी प्यास बुझाने में भी उपयोगी न होगा।"
चने पर बहुत बड़ा अनुपयोगी हो तो देती हुई प्रकार का जल मैं नहीं ले सकता ।
और प्यास बुझाने में प्रतिषेध करे इस
यदि वह पानी अनिच्छा या अनावधानी से ले लिया गया हो तो उसे न स्वयं पीए और न दूसरे साधुकों को दे ।
परन्तु एकान्त में जाकर अचित्त भूमि को देखकर यतनापूर्वक उसे परदे परठने के बाद स्थान में आकर प्रतिक्रमण करे।