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________________ सूत्र ३१६-३२० प्रथम महावत और उसकी पांच भावना चारित्राचार २१७ आषजीवाए तिषिहं तिषिहणं मणे वायाए कारणं न यावज्जीवन के लिए, तीन करण तीन योग से -मन से, करेमि, न कारवैमि, करतं पि अन्नं न समजाणामि । वचन से, काया से–न करूया, न कराऊँगा और करने वाले का अनुमोदन भी नहीं करूंगा। तरस भन्ते ! पडितकमामि निदामि गरिहामि अप्पाणं वोसि- भन्ते ! मैं उससे निवृत्त होता हूँ. निन्दा करता है, गर्दा रामि। करता हूँ और (कपाय) आत्मा का व्युत्सर्ग करता हूँ। पढमे मन्ते! महत्वए स्वदिओमि सम्बओ पाणावायाओ भन्ते ! मैं पहले महाव्रत में उपस्थित हुआ हूँ। इसमें सर्व देरमगं। -दस. अ. ४, सु. ११ प्राणातिपात को विरति होती है। पहम मजरा पंच सामनाओ प्रथम महाव्रत और उसकी पांच भावना३२०. पहम भंते ! महध्वयं पञ्चवखामि सम्वं पागातिशतं । ३२०. भन्ते ! मैं प्रथम महानत में सम्पूर्ण प्राणातिपात (हिंसा) का प्रत्याख्यान (श्याम) करता हूँ। से सुहम वा, बायरं था, तसं वा, थावरं वा, व सयं मैं सूक्ष्म-स्थूल (बादर) और वस-स्थावर समस्त जीवों का पाणातिवासं करेजा, नेवणं पाणातियात कारवेज्जा, अण्णं न तो स्वयं प्राणातिपात (हिंसा) करूगा, न दूसरों से कराऊंगा पि रागातिवात करत श समगुजाणज्जा । और न प्राणातिपात करने वालों का अनुमोदन समर्थन करूगा, जायज्मीवाए तिविह सिविहेण मगस।, ययसा, कायसा। इस प्रकार मैं यावज्जीबन तीन करण से एवं मन, बचन, काया से-तीन योगों से उस पाप से निवृत्त होता है। तस्स भंते ! परियकमामि, निदामि, गरहामि, अप्पागं वोसि- हे भगवन् ! मैं उस पूर्वकृत पाप (हिंसा) का पतिक्रमण रामि । करता, (पीछे हटता हूँ.) (आत्म-साक्षी से--) निन्दा करता हूँ, और (गुण साक्षी से..) गहीं करता हूँ, अपनी आत्मा से पाप का ध्युत्मर्ग (पृथक्करण) करता हूँ। तस्सिमाओ पंञ्च भावणाओ भवति । उस प्रथम महाव्रत की पाँच भावनाएं होती हैं१. तत्यिामा पढमा भावणा--रियास मिते से मिर्गथे, णो (१) उममें पहली भावना यह है-निर्ग्रन्थ ईयर्यासमिति से अगरियासमिसे ति। गुक्त होता है, ईयर्यासमिति से रहित नहीं। केवली वया-"हरिपाअसमिते से णिग्नथे पाणाई भूयाई केवली भगवान् कहते हैं-ईसिमिति से रहित निग्रंन्य जीवाई सत्ताई अभिहणज्ज वा, वसेज वा, रियावेज्ज वा, प्राणी, भूत, जीव और सब का हनन करता है, धूल आदि से लेसेन्ज वा, उहवेन वाइरियास मित्ते से गिगथे, जो ढकता है, दबा देता है, परिताप देता है, चिपका देता है, या हरियाअसमित सि पढमा भाषणा। पीड़ित करता है। इसलिए निम्रन्थ ईर्यासमिति से युक्त होकर रहे. ईर्यासमिति से रहित होकर नहीं।" यह प्रथम भावना है। २. अहावरा दोच्चा भावणा-मण परिजाणति से गिगये, (२) इसके पश्चात् दूसरी भावना यह है-मन को जो अच्छी तरह जानकर पापों से हटाता है वह नियंन्ध है।। जे य मणे पावए सावज्जे सकिरिए अन्हयकरे शेवकरे भेदकरे जो मन पापकर्ता सावध (पाप से युक्त) है, क्रियाओं से अधिकरणिए पारोसिए पारिताधिए पाणातियाइए भूतोषधा- युक्त है, कर्मों का आस्रवकारक है छेदन-भेदनकारी है, क्लेशलिए तह पगार मणं गो पधारेजजा । मगं परिजागति से द्वेषकारी है, परितापकारक है । प्राणियों के प्राणों का अतिपात जिागंदे, म य मगे अपायए ति बोच्या भावणा । करने वाला और जीवों का उपचातक है। इस प्रकार के मन (मानसिक विचारों) को धारण (ग्रहण) न करे । मन को को भलीभांति जानकर पापमय विचारों से दूर रखता है। जिसका मन पापों (पापमय विचारों) से रहित है, वह निर्गन्ध है। यह द्वितीय भावना है। समता सम्वभूएसु, सत्तु-मित्तंसु वा जगे । पाणाइवायविरई. जावजीवाए दुवकरे । उत्त. अ. १६, गा, २६ । २ दस, न. ६, मा.-१०। १
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
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