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________________ २१६] चरणानुयोग एस धम्मे धुवे गितिए सासते समे सोने पवेविते । 2 समस्त लोक को ( पीड़ा) को या यही धर्म ध्रुव है, नित्य है, शाश्वत है । केवल- ज्ञान के प्रकाश में जानकर जीवों के खेद सू. सु. २, अ. १, सु. ६०० क्षेत्र को जानने वाले श्री तीर्थकरों ने इस धर्म का प्रतिपादन किया है । प्रथम महावत - ( प्राणातिपात विरति ) - आराधना प्रतिशा से मिलू जे इमे तस-यावर पाणा भवति ते णो सयं समा रमति, मोह समारमादेखि अण्णे समारभते दि न समभुजाण, इतिमहता वातो उसे उसे परिविरते। -सू. सु. २, अ. १, सु. ६८४ जरा जगओ जोयं, विपरीपास पलेति य । सम् असंलक्या व तो हिसिया ॥ एतं णाणिणो सारं जं न हिसति किच मं । अहं समयं चैव एतावतं विशणिया ॥ सूय. सु. १, अ. १, उ. ४, गा. ६-१० पदम महत्यय आराहणा पणा ३१२. महम्य पाणावायाओ बे सभ्यं मंते ! पाणाइवायं परचक्खामि - से सुलभं वा वायरं वा, तसं वा. थावरं वा, से पागाइबाएं से जहा१.२.ओ, २. कालम ४. मायो। १. ओ छसु जीवनिकाए, २. खेत सबलोगे, ३. कालओ दिया वह, राम्रो वा ४. भावअरे रागेण वा वोसेण वा । नेव सर्प पाले अवाएरमा नेवलेहि पाणे महापा परणे चायते विन्नेन समाज १ आ. सु. १.४.२.१३२ जो ये बस और स्थावर प्राणी हैं, उनका वह भिक्षु स्वयं समारम्भ नहीं करता, न वह दूसरों से समारम्भ कराता है, और न ही समारम्भ करते हुए व्यक्ति का अनुमोदन परता है। सूत्र ३१८-३१६ इस कारण से वह साधु महान् कर्मों के आदान ( बन्धन ) से मुक्त हो जाता है, शुद्ध संगम में उद्यत रहता है तथा पाप कर्मों से निवृत्त हो जाता है । दारावर जीव रूप जगत्का (वाल्य-पीननबुद्धत्वा संयोग अवस्थाविशेष अथवा योग मन वचन काया की प्रवृत्ति उदार स्थूल है- इन्द्रियप्रत्यक्ष है और वे (जीव) विषय तुमरे पय) को भी प्राप्त होते हैं तथा सभी प्राणी दुःख से पीड़ित है, अतः सभी प्राणी महिस्वहिंसा करने योग्य नहीं हैं । विशिष्ट विवेकी पुरुष के लिए यही सार न्यायसंगत निष्कर्ष है कि वह (स्थावर या जंगम किसी भी जीव की हिंसा न करे । अहिंसा के कारण सब जीवों पर समता रखना और (उपलक्षण मे सत्य आदि) इतना ही जानना चाहिए, वा अहिंसा का समय ( सिद्धान्त या आचार) इतना ही समझना चाहिए। प्रथम महाव्रत बाराधन प्रतिज्ञा - - ३१. भन्ते ! पहले महाव्रत में प्राणातिपात से त्रिरमण होता है । ते ! मैं सर्व प्राणातिपात का प्रत्याख्यान करता हूँ । सूक्ष्म या स्थूल, त्रस या स्थावर उस प्राणातिपात के चार प्रकार कहे हैं (१) द्रव्य से, ( : ) क्षेत्र से (२) काल से, (४) भाव से । (१) इव्य से हीं जीविकाय में, (२) क्षेत्र से सर्वलोक में, (३) काल से दिन में या रात में, (४) भाव से राग या द्वेष से । जो भी प्राणी हैं उनके प्राणों का अतिपात में स्वयं नहीं करूँगा, दूमरों से नहीं कराऊँगा और अतिपात करने वालों का अनुमोदन भी नहीं करूँगा, २ सूय. सु. १, अ. ११, मा. १० ।
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
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