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________________ प्रयम महाव्रत पारिजाचार [२१५ अगाईयं च अणवदागं वोहमा चाउरतं संसार- अनादि-अनन्त दीर्घमार्ग वाले चतुर्गतिरूप संसार-अरण्य का कतारं बीतीवति। उल्लंघन करता है। से तेगट्ठग गोयमा ! एवं बुरामा-संवा अणगारे इस कारण से, हे गौतम ! ऐसा कहा जाला है कि संवृत सिम्मति-जाव-अंत करेति।" अनगार सिद्ध हो जाता है, पावनअन्त कर देता है। -- वि.सं. १, उ. १, सु. ११ चरित्तसंपन्नयाए फलं चारित्र सम्पन्नता का फल३१६.५०-परित्तसंपलाए णं मते ! जीवे कि जणयह? ३१६.प्र.-मन्ते ! चारित्र-सम्पन्नता से जीव क्या प्राप्त करता है? उ.-घरिससंपनाए सेलेसीमावं जगया। "सेलेसि पडि- उल-चारित्र सम्पन्नता से वह लेणी-भाव को प्राप्त होता वस्ने य अणगारे चत्तारि केवलिकम्भसे खदेह। तओ है। शैलेशी-दशा को प्राप्त करने वाला अनगार चार केवलिपच्छा सिज्मइ बुज्या मुग्ध परिनिवाएइ सम्ब- सत्क (केवली के विद्यमान) वार्मों को क्षीण करता है। उसके सुक्खाणमंत करे।" पप्रचान यह सिद्ध होता है. बुद्ध होता है. मुक्त होता है, परि -उत्त. अ, २६, सु. ६३ निर्वाण होता है और सब दुःखो का अन्त करता है। एगे चरणबिण्णाणेण एव मोक्खं मणति-- कुछ लोग चारित्र के जानने से ही मोक्ष मानते हैं३१७. हहमेगे उ मनन्ति, अप्पचक्खायपावगं । ३१७. इस संसार में कुछ लोग ऐसा मानते हैं कि पापों का आयरियं विरित्तागं, सब्याक्या विमुच्चई। त्याग किये बिना ही आनार को जानने मात्र से जीव सब दुःखों --उत्त. अ, ६, गा. ८ से मुक्त हो जाता है। प्रथम महानत (१) अहिंसा महाग्रत का स्वरूप और आराधना -'. - -... सम्वेहि तित्थयरेहि सम्ब-पाण-भुय-जीव-सत्ताणं रक्खणं सभी तीर्थंकरों ने सभी प्राण-भूत-जीव-सत्वों की रक्षा कायब्वं इति परुवियं करनी चाहिए ऐसी प्ररूपणा की है३१से बेमि-जे म अतीताय पप्पण्णा जे य आगमेस्सा ३१५. मैं (सुधर्मास्वामी) कहता हूँ-भूतकाल में (ऋषभदेव अरहता भगवंता सत्वे ते एवमाइक्वंति, एवं भासति, एवं आदि) जो भी अहंन्त (तीर्थकर) हो चुके हैं, वर्तमान में जो भी पण्णवेति, एवं पवेति-- (सीमन्धरस्वामी आदि) तीर्थकर है, तथा जो भी भविष्य में (पद्मनाभ आदि) होंगे, वे सभी अर्हन्त भगवान (परिषद में) ऐसा ही उपदेश देते हैं, ऐसा ही मारण करते हैं, ऐसा ही (हेतु, दृष्टान्त, युक्ति आदि द्वारा) बताते (प्रजापन करते) हैं, और ऐसी ही प्ररूपणा करते हैं किसाध्वे पाणा-जाव-मध्ये ससा ण हतब्वा, प अजायेयवा, ण किसी भी प्राणी, यावत-- राख की हिसा नहीं करनी परिघेतल्या, ण परिसावेयम्वा, ग उहवेयवा, चाहिए, न ही बलात् उनसे आशा पालन कराना चाहिए, न उन्हें बलात् दास-दासी आदि के रूप में पकड़कर या खरीदकर रखना चाहिए, न उन्हें परिताप (पीड़ा) देना चाहिए, और न उन्हें उद्विग्न (भवभीत या हैरान) करना चाहिए। - Hindustan
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
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