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________________ २१४] परणानुयोग असंवृत अणगार का संसार परिभ्रमण सूत्र ३१४-३१५ असंवुडअणगारस्स संसार परिभमणं असंवृत अणगार का संसार परिभ्रमण१. प. .ामने ! सारे किसिमति ? बुमति? ३१४. प्र०-भगवन् ! असंवृत अनगार श्या सिद्ध होता है, मुच्चति ? परिनिग्वाति ? सक्दुक्खाणमंतं करेति? -पावत्- समस्त दुःखों का अन्त करता है? उ–गोयमा ! नो इष्टु समढ़। 3.-हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ (क्य या ठीक नहीं है । ५०-सेकेणटुणमंते ! एवं बुमचह नो सिजमा-जाव-मो प्र--भगवन् ! वह किस कारण से सिद्ध नहीं होता, अंत करेइ ? - यावत् - अन्त नहीं करता? उ.- गोयमा ! असंडे अणगारे आउयवम्जाओ सत्तकम्म- उ.- गौतम ! असंवृत अनगार आयुकम को छोड़कर शेष पगडीओ, सात कर्म प्रकृतियों को सिविलबंधणयवाओ धणियबंधणयबाओ पफरेति, शिथिल बन्धन से बद्ध को गाढ़ बन्धन से बद्ध करता है, हस्सकासद्वितीयायो, वोहकाल द्वितीयाओ परति, अल्पकालीन स्थिति वाली को दीर्घकालिक स्थिति वाली करता है, मंदागमागाओ, तिब्वागुभागाओ पकरेति, मन्द अनुभाग बाली को तीव्र अनुभाग वाली करता है, अप्पपयेसम्गाओ बहप्पोसग्गाओ पकरेति, अल्पप्रदेश वाली को बहुत प्रदेश वाली करता है, आजगणं कम्म सिय अंधति, सिय नो बंधति, और आयुकर्म को कदाचित् बाँधता है, एवं कदाचित् नहीं बांधता है, असातावेदपिग्मं च गं कम्म भुज्जो-मुज्जो उचिणाति, असाताबेदनीय कर्म का बार-बार उपार्जन करता है, अणादीयं च गं अणववरगं दोहमर चाउरतं संसार- तथा अनादि बनबदन-अनन्त दीर्घ मार्ग वाले चतुगंति कतारं अणुपरिपट्टइ। संसाररूपी अरण्य में बार-बार पर्यटन परिभ्रमण करता है, से तेणट्र गोयमा ! असंकुडे अगगारे नो सिजनति हे गौतम ! इस कारण से असंवृत अनगार सिद्ध नहीं होता -जाव-नो सम्वदुक्खाणमंतं करेइ। -यावत-समस्त दुःखों का अन्त नहीं करता। –वि. स. १, उ. १, सु. ११ संवडअणगारस्स संसारपारगमणं संवृत अणगार का संसार पारगमन३१५.५०-सं मंते ! अगगार सिन्तति-जाव-अंत करेति ? ३१५. प्र०-- भगवन् ! क्या संवृत अनगार सिर होता है, ---यावत-अन्त करता है? उ.-हल, सिज्मति जान-अंत करेति । उ.-हाँ गौतम ! वह सिद्ध होता है,--यावत् - सब दुःखों का अन्त करता है। प.-से केणगं मंते । एवं बुच्चइ-सिजमाइ-जाव अंत -भगवन् ! वह किस कारण से सिद्ध होता है, कति? -पावत् सब दु.खों का अन्त करता है ? उ०-गौतम ! संवृत अनगार आयुष्य कर्म को छोड़कर शेष पगडोओ, घणिय बंधणबद्धाओ [सिढिलबंधणबताओ सोत कर्म प्रकृतियों को गाहबन्धन से बद को चिथिल बन्धनबद्ध पकरति, कर देता है, दोहकालद्वितीयाओ हस्सकालट्टितीपाओ पफरेति, दीर्घकालिक स्थिति वाली को ह्रस्व (थोड़े) काल की स्थिति दामी करता है, तिवाणुभागाओ मंशाणुमायाओ पफरेति, तीवरस (अनुभाव) वाली को मन्दरस वाली करता है, मनुपएसग्गाओ अप्पपएससग्गाओ पकरेति, बहुत प्रदेश वाली को अल्पप्रदेश वाली करता है, आउयं च कम्मं न बंधति, और आयुष्य कर्म को नहीं बांधता है। असायावेणिज्नं च णं कर्म नो मुज्जो मुज्जो उव- वह असातावेदनीय कर्म का बार-बार उपचय नहीं करता विवाति, है। (अतएव वह)
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
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