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चरणानुयोग
चतुर्थ ब्रह्मचर्य महावत को पांच भावनाएं
सूत्र ६३७-६३६
प.-से किमाह भते ।
१०-हे भगवन् ! आप ऐसा क्यों कहते हैं ? उ.-सच्चपाइन्ना, बवहारा ।
30-तीर्थंकरों ने सत्य प्रतिज्ञा पर (सत्य कथन पर) व्यव
हार को निर्भर बताया है। जे भिक्खू अ गणाओ अवकम्म ओहाणुप्पेही बम्जेज्जा, असंयम सेवन की इच्छा से यदि कोई साधु गण से निकलसे य अणोहाइए इच्छेज्जा दोच्च पितमेव गणं उव- कर जावे और बाद में असंयम का सेवन किए बिना ही आकर संपजिताण विहरितए,
गुन: नसी गण में सम्मिलित होना चाहेतत्प ण धेराणं इमेयाहवे विवाए समुप्पज्जित्पा- (ऐसी स्थिति में) संघ स्थविरों में यदि विवाद उत्पन्न हो
जाए कि"इमं भो ! जाणह कि पडिसेवी, अपडिसेवी ?" "भिक्षुओ ! क्या तुम यह जानते हो कि भिक्षु प्रतिसेवी है
या अप्रतिसेवी ?" से य पुछियवे
तब उस साधु से पूछना चाहिए कि--- प. --पकि पहिसेवी, अपडिसेवौ ?"
प्र.- क्या तुम प्रतिसेवी हो या अप्रतिसेवी हो? उ०-से य बएज्जा "पडिसेवी" परिहारपत्ते ।
5--(क) (यदि वह कहे कि) "मै प्रतिसेवी हूँ।" तो वह
परिहारतप (प्रायश्चित्त) का पात्र होता है। से यवएज्जा-"नो पडिसेवी" नो परिहारपत्ते । (ख) (यदि यह बहे कि) ' मैं प्रतिसेयी नहीं हूँ।" तो वह जं से पमाणं वयह से पमाणओ घेयम् ।
परिहारतप (प्रायश्चित्त) का पात्र नहीं होता है। क्योकि वह प्रमाणभूत (सत्य) वचन कहता है अत: उसका कथन प्रमाण रूप
से ग्रहण करना चाहिए। प०--से किमाह भंते!
प्र-हे भगवन् ! आप ऐसा क्यों कहते हैं ? १०-सपचपन्ना ववहारा।
उ-तीर्थंकरों ने सत्य प्रतिज्ञा पर व्यवहार को निर्भर -वत्र. उ. २, सु. २४-२५ बताया है।
५. परिशिष्ट
चउत्थस्स बंभचेरमहब्वयस्स यंघ भावणाओ--
चतुर्थ ब्रह्मचर्य महाव्रत की पांच भावनाएँ-- ६३८. १. इत्थी-पम-पंजमसंसत्तसयणासणवज्जणया,
(१) स्त्री-पशु-नपुंसक सहित शवन-आसन त्याग, २. इस्थीकहवि वजणया,
(२) स्त्री-कथा का त्याग, ३. इत्यीणं इंविषाणमालोयगवरजणया,
(३) स्त्री की इन्द्रियों (मनोहरांग) को देखने का त्याग, ४. पुरवरय-पुत्वकोलिआणं अपणुसरणया,
(४) पूर्वानुभूत रति क्रीडा के स्मरण का त्याग, ५. पणोताहार विवाजणया।
(५) पौष्टिक स्निग्ध आहार करने का त्याग, तस्स मा पंच्च भाषणाओ चउत्थस्स होति अचमचेरवेरमण- चतुर्थ अब्रह्मचर्य विरमणवत की रक्षा के लिए ये पांच परिरक्षणद्वयाए।
भावनाएं हैं। पढमा भावणा-विवित्त सयणासणया
प्रथम भावना स्त्री युक्त स्थान का वर्जन - ६३६. पढमं १. सयगासण-घर-दुपार-अंगण-आगास-गवख-साल- ६३९. (१) शय्या, आसन, गृहद्वार (घर का दरवाजा). आँगन, अमिलोयण-पच्छवत्युकपसाहणक-पहाणिकायकामा अवकासर। आकाश्च (छत) ऊपर से खुला स्थान. झरोत्रा, सामान रखने का
कमरा आदि स्थान, बैठकर देखने का ऊँचा स्थान, पिछवाड़ापीछे का घर, नहाने और शृगार करने का स्थान, इत्यादि सब स्थान, स्त्री-संसक्त-नारी के संसर्ग वास होने रो वर्जनीय हैं ।