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सूत्र ६३९-६४१
द्वितीय भावना स्त्रीकपा विवर्जन .
चारित्राचार
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२. नेय वेसियायणे अमछति ।
(२) जहाँ वेश्याओं के बड़ा है। ३. भरप इरिथकाओ अभिक्षणं मोह-पोस-रति-रागवड- (३) जहा स्त्रियां बार-बार आकर बैठकर मोह ष कामपीनो कहिति य कहाको बहुविहाओ विहु वणिमाराग और स्नेहराग की वृद्धि करने वाली नाना प्रकार की कथाएँ
कहती हैं-उनका भी ब्रह्मचारी को वर्जन करना चाहिए। ४. हत्यिसंसत्त-सफिलिट्टा अग्ने यि एक्माई अवकासाते (४) स्त्रो संसर्ग के कारण संक्लेशमुक्त अन्य जो भी स्थान वि बम्मणिरहा।
हो, उससे भी अलग रहना चाहिए। ५. मात्य मणोषिकममो का, मंगोवा, (मंसगोवा) अटू, ब (५) जहाँ रहने से मन में व्यग्रता उत्पन्न हो, ब्रह्मचर्य भग्न चहुज्न साणं तं तं जेज्जऽवग्मोर अगायत अंत- हो, जहाँ रहने से आतंध्यान-रौद्रध्यान होता हो, उन-उन पंतवासी।
अनायतनों - अयोग्य स्थानों का पापभीरु-ब्राह्मचारी परित्याग
करे। साधु विषय-विकार रहित एकान्त स्थानवासी हो । एबमसंसप्त वास-वसही समिइ-जोगेण माविमो भवद अंत- इस प्रकार स्त्रियों के संसर्ग से रहित स्थान में समिति के - रप्पा-आरतमण-विरयगामम्मे जित दिए अमरगुत्ते। योग से भावित-अन्तःकरण वाला, ब्रह्मचर्य में अनुरक्त चिसवाला
तया इन्द्रिय विकार से विरत रहने वाला, जिलेन्द्रिय साधु ब्रह्म
चर्य से गुप्त (सुरक्षित) रहता है। बिड्या भाषणा: इस्थीकहा, विवज्जणया
द्वितीय भावना : स्त्रीकथा-विवर्जन६४०. विध्यं-१.नारी जस म न कहेयम्बा कहा विचित्ता ६४. केवल स्त्रियों की सभा में वाणी विलास रूप विचित्र
विग्वोप-विलास-संपत्ता हास-सिंगार लोइयकहाव मोह- प्रकार की कथा नहीं करनी चाहिए, जो कया स्त्रियों को कामअपणी।
चेष्टाओं से और विलास-स्मित आदि के वर्णन से युक्त हो, जो हास्य और शृगार रस की प्रधानता वाली हो, जो मोह उत्पन्न
करने वाली हो, २. न आवाह-विवाहवरकहाविष इस्थीर्ण या सुभग-दुमग (२) इसी प्रकार गौने या विवाह सम्बन्धी बातें भी नहीं कहा धउसहिच महिलागुणा।
करनी चाहिए। स्त्रियों के सौभाग्य-दुर्भाग्य की चर्चा, वार्ता एवं महिलाओं के चौंसठ गुणों (कलाओं) सम्बन्धी कथाएँ भी नहीं
कहनी चाहिए। .. वन-वेस-माति-कुल-व-नाम-नेवस्थ-परिजण-कहावि (३) स्त्रियों के रंग-रूप, देश, जाति, कुल, नाम (भेद-प्रभेद इरिषयान
मादि) पोशाक तथा परिवार सम्बन्धी कथाएँ नहीं कहनी
चाहिए। ४. मनावि य एवमाक्यिाओ कहाओ सिगार-कसुणरसाओ (४) तथा इसी प्रकार की जो भी अन्य कथाएँ शृगार रस तब-संजम-भरधाओवशायाऔ अणुबरमाणेणं बंमचेरं न से करुणा उत्पन्न करने वाली हों और जो तप, संयम तया ब्रह्मकोयम्बा, म सुणेयबा, न चितेवग्वा ।
चर्य का पात-उपधात करने वाली हों, ऐसी कथाएँ ब्रह्मचर्य का पालन करने वाले साधुजनों को नहीं कहनी चाहिए, न सुननी
चाहिए और न उनका चिन्तन करना चाहिए। एवं यी कहाविस-समितिजोगेण माविओ भवा असरप्पा इसी प्रकार स्त्रीकथा-विरति-समिति के योग से भावितभारत-मग-विरमगाम मे जितिदिए संभचेरगुसे। अन्तःकरण बाला, ब्रह्मचर्य में अनुरक्त चित्तवाला तथा इन्द्रिय
विकार से विरत रहने वाला, जितेन्द्रिय साधु ब्रह्मचर्य से गुप्त
(सुरक्षित) रहता है। ततीया भावणा : इत्थीणं इंदियाणमालोयण वज्जणया- तृतीय भावना : स्त्री रूप दर्शन निषेधvt. तसीयं-नारोगं हसिप-भणियं चेदिय-वियेविलय-इ- ६४१. नारियों के हास्य को, विकारमय भाषण को, हाय आदि दिलास-कीलियं,
की चेष्टामों को, कटाक्षयुक्त निरीक्षण को, गति-चाल को, बिलास-क्रीड़ा को,