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________________ सूत्र ३५-३७ संखडी में भोजन करने से उत्पन्न दोष चारित्राचार : एषणा समिति [६१५ wom तम्हा से संजते णियंठे तहप्पगारं पुरेमखाँड बा, पच्छा संस्ड इसलिए संयभी निर्ग्रन्थ इस प्रकार की (नामकरण, विवाह वा संसटि संखपिडियाए णो अभिसंधारेज्जा गमणाए। आदि के उपलक्ष्य में होने वाली पूर्वसंखडि (पीतिभोज) पश्चात --आ. सु. २, अ. १. उ. २.३३८ (ख) संखडि मृतक भोज) में संस्खडि की दृष्टि से जाने का मन में संकल्प न करें। संखडीभोयणे उप्पण्णदोसाइं-- संखडी में भोजन करने से उत्पन्न दोष-- ३६. से एमतिमो अषणतरं संखडि आसित्ता पिबित्ता छड्डेज्ज ३६. कोई एक भिक्षु को किसी संखड़ी में अधिक सरस आहार वा, धमेज्ज बा, भुत्ते वा से णो सम्म परिणमेज्जा, अण्णतरे खाने-पीने से दस्तें लग सकती हैं या नमन हो सकते हैं अथवा वा से दुक्खे रोगातके समुप्पा जेज्ना । खाये गये आहार का सम्यग् परिणमन नहीं होने से कोई दर्द या रोग तक पैदा हो सकता है। केवली बूया-आयाणमेपं । इसलिए केवली भनवान् ने कहा है - यह कर्मबंध का कारण है। इह खलु भिक्खू गाहावतोहि वा, गाहाबलोणी वा परिवाय- संखड़ी में भिक्षु गृहस्थ, गृहस्थ' पत्नियो, परिव्राजक, एहि वा परिवाइया काग साग सोई गाउंति परिमाणिमानव एक साथ एकत्रित होकर मद्य पीकर गवेषणा मिस्स हरस्था वा उपस्सय पडिलेहमाणे णो लभेजा तमेव करने पर भी कदाचित् अलग-अलग स्थान न मिलने पर एक ही उपस्सयं सम्मिस्सीभावमावज्जेज्जा, अण्णमणे वा से भरे स्थान में मिथित रूप से ठहरने का प्रसंग प्राप्त होगा। वहाँ ने विपरियासियभूते इस्थिविगहे वा, किलोचे घा, तं मिक्खं गृहस्थ, गृहस्थपरिनयाँ आदि नशे में मत एवं अन्यमनस्क होकर उन्नसंकमित्तु बूया अपने आप को भूल जाएंगे और स्त्रिया या नपुसक उस' भिक्षु के पास आकर कहेंगे'आउसंतो समणा ! अहे आरामसि वा, अहे उथस्ससि "आयुष्मन् श्रमण! किसी बगीचे या उपाश्रव में रात्रि में वा, रातो वा, वियाले वा मामधम्मनियंतियं कटटु रस्सिय मा बिकाल में इन्द्रिय विषयों की पूर्ति के लिए एकान्त स्थान में मेहुणधम्मपरियारणाए आउट्टामो ।' तं गइओ हम मैथुन-सेवन करेंगे।" उस प्रार्थना को कोई एक साधु स्वीकार सातिरजेजा। भी कर सकता है। अकरगिज्जत संखाए, एने आयाणा संति संचिज्जमाणा किन्तु यह साध के लिए सर्वथा अकरणीय है, यह जानकर पच्चयाया प्रति । रांखड़ी में न जाए क्योंकि संखड़ी में जाना कर्मों के पासव का बारण है । इसमें जाने से कर्मों का संचय बढ़ता है तथा पूर्वोक्त दोष उत्पन्न होते हैं। सम्हा से संजए णियंठे तहत्पपार पुरेसात वा पन्छासंखाँड इसलिए संयमी निर्ग्रन्थ पूर्व संवाडी या पश्चात् संखडी में वा संखडि संखडिपरियाए णो अभिसंधारेज्जा गमणाए। जाने का विचार भी न करें। -आ. सु २. अ. १, उ. ३, सु. ३४० आइण्णसंखडीए गमणणिसेहो तहोसाई च- आकीर्ण संखडी में जाने का निषेध व उसके दोष३७. से भिक्खू वा, भिक्खूणी वा से ज्नं पुण जाणेजा गाम वा ३७, भिक्षु या भिक्षुणी गाँव--यावत्-राजधानी के विषय में -नाव-रामहाणि वा, इमंसि खलु गामंसि वा-जाव-रायहा- जाने कि इस गाँव--यावत् -राजधानी में संखडी है तो उस णिसि वा संखजिसिया, सं पियाई गाम वा-जावदायहाणि गांव-यावत्-राजधानी में संखडी की प्रतिज्ञा से जाने का या संखडि संचडिपटियाए णो अभिसंधारेजा गमणाए । विचार भी न करे। केवलो चूया आयाणमेयं । केवली भगवान कहते हैं कि- यह अशुभ कर्मों के बन्ध का कारण है। आइग्णोमाणं संकि अणुपविरसमाणस्स आकीर्ण और अवमान संखडी में प्रविष्ट होने से-- १. पाएग वा पाए अपकंतपुश्व भवति, (१) पैर से पैर टकरायेंगे । २. हत्येण वा हत्ये संचालियपुग्वे भवति, (२) हाथ से हाथ संचालित होंगे।
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
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