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________________ सूत्र ३३५-३३६ अप्रमत्त मुनि के अध्यवसाय चारित्राचार : गुप्ति-वर्णन [७३७ 30-जिबिम्बिय निग्गहेणं मणुनामणुग्नेसु रसेमु राग-दोस- ---जिह्वा-इन्द्रिय के नियह से वह मनोज्ञ और अमनोज्ञ निग्गहं जणयह, तप्पाचदयं कम्म न बघड, पुष्यबळ रसों में होने वाले राग और ष का निग्रह करता है वह रागच निजरे। द्वेष निमित्तक कर्मबन्धन नहीं करता है और पूर्व-बद्ध कर्म को क्षोण करता है: १०–फासिन्दिय निगहेणं मन्ते । जोवे कि जणयह ? प्र--भन्ते ! स्पर्ग-इन्द्रिय का निग्रह करने से जीव क्या करता है? उ०—फासिन्दिय निग्गहेणं मणुनामगुन्नेसु फासेमु राग-बोस- उ० - स्पर्श-इन्द्रिय के निग्रह से वह मनोज्ञ और अपनोश निग्गहं जणपड, तप्पच्चइयं कम्मं न बन्धइ, पुग्वबळ स्पों में होने वाले राग-द्वेष का निग्रह करता है। वह राग-द्वेष च निउजरेड। ---उत्त. अ. २६, सु. ६४ से ६८ निमित्तक कर्म-बन्धन नहीं करता है और पूर्व-बद्ध कर्म को क्षीण करता है। अप्पमत्तअग्झयमाणं-- अप्रमत्तमुनि के अध्यवसाय३३६. आवंती केआवंती लोगसि अणारंभजीबी, एतेसु चेव अगा- ३३६. इस मनुष्य लोक में जितने भी अनारम्भजीवी हैं, वे मनुष्यों रमजीवो। के बीच रहते हुए भी अनारम्भजीती है। एत्योबरते तं झोसमाणे अयं संधी ति अवषम्यु, सायद्य आरम्भ से उपरत मुनि यह मनुष्यभव उत्तम अवसर है ऐसा देखकर को पोषण करता हुमा प्रमाद न करे। जे हमस्त विम्गहस्स अयं खणे ति भन्नेसी। "इस ओदरिक शरीर या यह अमूल्य क्षण है" इस प्रकार जो क्षणान्वेषी है वह मदा अपमान रहता है। एस मग्गे आरिएहि पवेरिते। यह (अप्रमाद का मार्ग) तीर्थकरों ने बताया है। उद्विते णो पमादए। साधक इसमें उस्थित होकर प्रमाद न करे। जाणित्तू दुक्खं पत्तेयं सातं । प्रत्येक का सुख और दल (आना-अपना स्वतन्त्र होता है यह) जानकर प्रमाद न करे । पुढो छंदा इह माणवा। इस जगत् में मनुष्य पृथक्-पृथक् अध्यवसाय वाले होते हैं, पुढो दुक्खं पवेदितं । उनका दुःख भी पृथक-पृथक् होता है-ऐसा तीर्थंकरों ने कहा है। से अविहिसमाणे अणवयमाणे पुट्ठो फासे विष्मणोल्लए । वह जानकर साधक किसी भी जीव की हिंसा न करता एस समिया परिवाए विवाहिते। हुआ, असत्य न बोलता हुआ, परोषहों और उपसर्गों के होने पर उन्हें समभावपूर्वक सहन करे ! ऐसा साधक सम्यक् प्रत्रज्या वाला कहलाता है। जे अससा परावहि कम्मेहि उदाह ते आतंका फुसति । इति जो साधक पापकर्मों में आसक्त नहीं है मदाचित् उसे उपराष्ट्र बोरे । ते फासे पुट्ठोऽधियासते । रोगातंक उत्पन्न हो जाय तो उन उत्पत्र दुःखों को भली-भांति नहन करे ऐसा तीर्थकर महावीर ने कहा है। से पुख्ख पेतं पसछा पेतं, भेउरधम्म, विसणधम्म, अधुवं. यह शरीर पहले या पीछे अवश्य छूट जायेगा । छिन्न-भिन्न अणितियं, असासतं, चपोषचदर्थ, विप्परिणाम धम्म । पास होना और विध्वंस होना इसका स्वभाव है। यह अध्रुव है, एवं स्वसंधि । अनित्य है, अशाश्वत है, इसमें उपचय-अपचय (घट-बढ़) होता रहता है, विविध परिवर्तन होते रहना इसका स्वभाव है। इस प्रकार शरीर-स्वभाव का विचार करे। समुपेहमाणस्स एगायतणरतस्स बह विप्पमुक्कस्स णस्थि माग जो इस प्रकार शरीर स्वभाव का विचार करता है, इस विरयस सिबेमि आत्म-रमणरूप एक आयतन में लीन रहता है तथा मोह ममता -आ. सु०१, अ० ५,०२, सु०१५२-१५३ से मुक्त है, उस विरत साधक के लिए संसार-भ्रमण का मार्ग नहीं है । ऐसा मैं कहता हूं।
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
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