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वरणानुयोग
कापवण्ड का निषेध
सूत्र १३३७-१३३८
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कायदंडणिसेहो
कायदण्ड का निषेध३३७. उड्वं अहं तिरिय विसासु सम्बतो सप्वाचति च णं पाडि- ३३७. ऊँची, नीची एवं तिरछी, सब दिशाओं में सब प्रकार से यक्कं जीवेहि कम्मत्तमारंभेणं ।
एकेन्द्रियादि जीवों में से प्रत्येक को लेकर कम-सभारम्भ किया
जाता है। तं परिणाय मेहावी व सर्व एतेहिं काएहि दर समारंभेज्जा यह जानकर मेधावी साधक स्वयं इन जीवों के प्रति दण्डणेवणेहिं एतेहि फाएहि र समारंभावेज्जा, वाणे समारम्भ न करे, न दूसरों से दण्ड समारम्भ करवाये और दण्टएतेहि काहि बंड समारंभते वि समणुनाणेजा। समारम्भ करने वालों का अनुमोदन भी न करें। में यण्णे एतेहि काहि व समारंमंति तेसि पिवयं अन्य जो भी इन जीवनिकायों के प्रति दण्ड-समारम्भ करते लग्जामो।
है उनके कार्य से भी हम लज्जित होते हैं । (ऐसा अनुभव करे ।) तं परिणाम मेहायो तंबा कर अणं वा जो बंडमी दर यह जानकर दण्डभीर मेधावी मुनि हिंसा दण्ड का अथवा समारंभेज्जासि ।
मृषावाद आदि किसी अन्य दण्ड का दहसमारम्भ न करे। -आ. सु. १, अ.८, उ.१, सु. २०३ अथिरासणो पावसमणो
अस्थिरासन वाला पापश्रमण है१३३८. अथिरासणे कुक्कुईए. जत्थ तत्थ निसीयई।
१३३८, जो स्थिरासन नहीं होता, बिना प्रयोजन इधर-उधर आसम्मि अणाउत्ते, पावसमगे ति बुच्चई॥
चक्कर लगाता है, जो हाथ, पैर आदि अवयवों को हिलाता --उत्त.अ. १७, गा.१३ रहता है, जो जहाँ कहीं बैठ जाता है-इरा प्रकार आसन (या
बैठने) के विषय में जो असावधान होता है. वह पाप-श्रमण कहलाता है।