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________________ सूत्र ६३१ अग्निकाय प्रतिष्ठित आहार ग्रहण करने का मिषेध चारित्राचार : एषणा समिति [५६९ असणं वा-जाव-साइमं या अगणिणिक्खितं, अशन-थावत् -स्वादिन आहार अग्नि (अंगारों) पर रखा हुआ है, तहप्पगारं असणं या-जार-साइमं वा अफासुयं-जाव-णो उस अपन—पावत्-स्त्रादिम को अग्रासुक' जानकर पहिगाहेज्जा। -यावत्-ग्रहण न करे। केवलो भूया--आयाणमेयं । केवली भगवान कहते हैं-यह कर्मों के उपादान का कारण है। अस्संजए भिक्खूपडियाए उस्सिंघमाणे वा, निस्सित्रमाणे वा, क्योंकि असंयमी गृहस्थ भिक्षु के उद्देश्य से अग्नि पर रखे आमग्जमाणे वा, पमन्जमाण वा, उत्तरमाणं था, उयत्तमार्ण हुए बर्तन में से आहार को निकालता हुआ, देने के बाद शेष वा, अगणिजीये हिसज्जा। आहार को वापिस डालता हुआ, उसे हाथ आदि से प्रमार्जन या शोधन करता हुआ, आग पर से उतारता हुआ पा अग्नि पर ही दर्तन को टेढ़ा करता हुआ अग्निकायिक जीवों की हिंसा करेगा। अह भिक्खूणं पुटवोदिट्टा एस पडणा-जाव-एस उबएसे जं अतः भिक्षुओं के लिए तीर्थंकर भग्वान् ने पहले से ही यह सहप्पगारं असणं वा-जाव-साइमं वा ठागणिणिक्खितं अफा- प्रतिज्ञा यावत् - उपदेश दिया है कि वह अग्नि अर्थात् (अंगारों) सुर्य-जाव-जो पडिग्गाहेम्जा । पर रखे हुए अशन-यावत्-स्त्रादिम को अप्रामुक जानकर -आ. सु. २. अ. १, उ. ६, गु. ३६३ -यावत्-ग्रहण न करे । से भिक्खू वा भिक्खणी वा गाहावइकुलं पिण्डवाय पडियाए गृहस्थ के घर में आहाराय प्रविष्ट भिक्षु या भिक्षुणी यदि अणुपविठे समाणे से उजं पुण जाणेज्जा--- यह गने किअसणं वा-जाथ-साइमं वा अगणिकायपतिद्वितं, अशन-यावत्-स्वादिम अनिकाय (चूल्हे) पर रखा हुआ है। तहप्पगारं असणं था-जाव-साइम वा अफासुयं जान-णो ऐसे अशन-यावत्-स्वादिम को अप्रासुक जानकर पडिगाहेज्जा। -यावत्-प्रहण न करे। केवली ब्रूया-आयाणमेयं । कवली भगवान् कहते हैं-यह कमों के उपादान का कारण है। अस्संजए भिक्षुपडियाए अणि उस्सक्कियं, णिस्सक्कियं, क्योंकि असंयत गृहस्थ सात्र के उद्देश्य से अग्नि में ईधन ओहरियाहमु दलएग्जा। राजकर अथवा निकालकर या बर्तन को उतार कर माहार लाकर देग। जं तहप्पगार असणं वा-जाव-साम वा अगणिकाय गाड़ियं। इसलिए तीर्थकर भगवान् ने भिक्षुओं के लिए पहले से ही अह भिक्खूणं पुथ्वोचदिट्ठा एस पइण्णा-जाव-एस उपएसे यह प्रतिज्ञा-यावत् --उपदेश दिया है कि यह चूल्हे पर रखे हुए अफासुयं-जावणो पडिगाहेज्जा। अशन - यावत् - स्वादिम को अत्रासुक जानकर-यावत् - ---आ. सु. २,भ.१.उ.७.सु. ३६८ (ग) ग्रहण न करे। असणं पाणगं वा वि, साइमं साइमं तहा। अणन पान खाद्य स्वाद भग्नि पर रखा हुमा हो उसे अगणिम्मि होज्न निक्षितं, तं च संघट्टिया दए ॥ देती हुई स्त्री यदि अग्नि का शं करके दे तो भिक्षु उसे कहे . तं भवे भत्त-पाणं तु, संजयाण अकप्पियं । "ऐसा भक्त-पान संयतों के लिए नहीं कल्पता है, अतः मुझे लेना दतियं पडियाइखे न मे पद तारिस ॥ नहीं कल्पता है।" असणं पाणगं वावि, खाइमं साइमं तहा । अशन पान खाय स्वाद्य अग्नि पर रखा हुआ हो उसे अगणिम्मि होज्ज निक्खितं, तं च उस्सक्किया थए । देती हुई स्त्री यदि अग्नि में इंधन देकर दे तो भिक्षु उसे कहेतं भवे मस-पाणं तु, संजयाण अकप्पियं। 'ऐसा भक्त पान संयतों के लिए नहीं कल्पता है. अतः मुझे लेना रेलियं पडियाइने न मे कप्पइ तारिस ॥ नहीं कल्पता है।" असणं पाणगं वा वि, खाइम साइमं तहा। अशन पान खाद्य स्वाद्य अग्नि पर रखा हुआ हो उसे अगणिम्मि होज निक्खितं, तंच ओसक्किया बए।" देती हुई स्त्री यदि अग्नि में से धन निकालकर दे तो भिक्षु उसे
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
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